केंद्र सरकार द्वारा पहली राष्ट्रीय जल नीति 1987 में तैयार की गई थी, जिसका बाद में 2002 में पुनर्विलोकन और संशोधन किया गया। जल संसाधन मंत्रालय द्वारा जून 2012 में राष्ट्रीय जल नीति 2012 जारी की गई। (जून 2019 में जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय तथा पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय को मिलाकर एक नए एकीकृत मंत्रालय के अंतर्गत लाया गया, जिसे जल शक्ति मंत्रालय कहा जाता है।) इस नीति का उद्देश्य मौजूदा स्थिति का आकलन करना और एकीकृत राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में कार्य योजना के लिए रूपरेखा प्रस्तावित करना है। 2012 की नीति में प्रमुख नीतिगत नवाचारों में से एक एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन दृष्टिकोण की अवधारणा थी, जिसने जल संसाधनों की योजना, विकास और प्रबंधन के लिए ‘नदी बेसिन/उप-बेसिन’ को एक इकाई के रूप में देखा। इस नीति को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया गया है।
1. प्रस्तावना
जल प्राकृतिक संसाधन है और जीवन, जीविका, खाद्य सुरक्षा और निरंतर विकास का आधार है। यह एक दुर्लभ संसाधन भी है। भारत में संसार की 17 प्रतिशत से अधिक आबादी है जबकि विश्व का केवल 4 प्रतिशत नवीकरणीय जल संसाधन और विश्व का 2.4 प्रतिशत भू-क्षेत्र है। जल की कमी तथा इसके जीवन रक्षक और आर्थिक महत्व के विषय में जागरूकता की कमी के कारण जल का कुप्रबंधन, जल की बर्बादी और अकुशल उपयोग होता है और प्रदूषण तथा न्यूनतम पारिस्थितिकीय आवश्यकताओं से भी कम प्रवाह हो पाता है। इसके अतिरिक्त, जल संसाधनों का बंटवारा असमान है तथा जल संसाधनों की आयोजना, प्रबंधन और उपयोग के विषय में एकसमान परिप्रेक्ष्य की कमी है। राष्ट्रीय जल नीति का उद्देश्य मौजूदा स्थिति का संज्ञान लेने, नियमों और संस्थाओं की प्रणाली के सृजन और एकीकृत राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य समेत कार्य योजना हेतु ढांचे का प्रस्ताव रखना है।
महत्वपूर्ण चिंताएं इस प्रकार हैं—
(i) भारत के बड़े हिस्सों में पहले ही जल की कमी हो चुकी है। जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण और जीवन शैली में परिवर्तन के कारण जल की मांग में तेजी से बढ़ोतरी की वजह से जल सुरक्षा के विषय में गंभीर चुनौतियां बन गई हैं।
(ii) जल संचालन संबंधी मुद्दों का पर्याप्त रूप से समाधान नहीं किया गया है। जल संसाधनों के खराब प्रबंधन से देश के कई हिस्सों में गंभीर स्थिति बन गई है।
(iii) जल की उपलब्धता में भारी स्थानिक और कालिक अंतर है जो जलवायु परिवर्तन से और अधिक बढ़ सकता है जिसके कारण जल संकट और गहराएगा तथा जल संबंधी आपदाओं अर्थात बाढ़, अधिक भू-कटाव तथा सूखे की बार-बार होने वाली घटनाओं आदि में वृद्धि होगी।
(iv) जलवायु परिवर्तन से समुद्र जल का स्तर भी बढ़ सकता है। इसकी वजह से भूजल जलभृतों/सतही जल में लवणता का प्रवेश हो सकता है और तटीय क्षेत्रों में तटीय जल-प्लावन बढ़ सकता है जिसका इन क्षेत्रों के निवास स्थानों, कृषि और उद्योग पर बुरा असर पड़ेगा।
(v) कई क्षेत्रों में स्वच्छ पेयजल और अन्य घरेलू आवश्यकताओं के लिए जल की उपलब्धता की समस्या अभी भी है। विभिन्न क्षेत्रों में और एक ही क्षेत्र के विभिन्न लोगों के बीच जल उपलब्धता विषम है और इससे सामाजिक अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
(vi) भूजल हालांकि जल विज्ञानीय चक्र और सामुदायिक संसाधन का हिस्सा है लेकिन इसे अभी भी वैयक्तिक संपत्ति मानकर इसकी निरंतरता के विषय में सोचे-समझे बिना इसका असमान दोहन किया जाता है जिसके कारण कई क्षेत्रों में अति-दोहन की स्थिति बन गई है।
(vii) जल संसाधन परियोजनाएं जो कि यद्यपि बहुसंख्यक पणधारियों वाली बहुआयामी परियोजनाएं होती हैं; की आयोजना और कार्यान्वयन, अनुकूलतम उपयोग, पर्यावरण का स्थायित्व और लोगों के समग्र लाभ के विषय पर कोई ध्यान दिए बिना विखंडित रूप से किया जा रहा है।
(viii) जल की हिस्सेदारी के संबंध में अंतराल, अंतरराज्यीय, अंतःराज्यीय और अंतरक्षेत्रीय विवादों के कारण, संबंधों में तनाव तथा बेसिन/उप बेसिन आधार पर वैज्ञानिक योजना के माध्यम से जल के अनुकूलतम उपयोग में बाधा आती है।
(ix) समग्र रूप से मौजूदा सिंचाई अवसंरचनाओं के अपर्याप्त अनुरक्षण के फलस्वरूप उपलब्ध संसाधनों की बर्बादी होती है और उपयोग कम हो पाता है। सृजित सिंचाई क्षमता और उपयोग की गई सिंचाई क्षमता में भारी अंतर है।
(x) प्राकृतिक जल निकायों और जल निकास मार्गों पर अतिक्रमण किया जा रहा है और उनका उपयोग अन्य प्रयोजनों के लिए किया जा रहा है। भूजल पुनर्भरण क्षेत्र प्रायः बंद रहते हैं।
(xi) जल स्रोतों में बढ़ता प्रदूषण, विशेषकर औद्योगिक बहिःस्रावों के जरिए पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा करने के साथ-साथ स्वच्छ जल की उपलब्धता को भी प्रभावित कर रहा है। देश के कई हिस्सों में नदी का बड़ा क्षेत्र बहुत अधिक प्रदूषित होने के साथ-साथ जलीय पारिस्थितिकी, कृषि आवश्यकताओं तथा सौंदर्यबोध में सहायता देने हेतु प्रवाहमयी होने से भी वंचित रह जाता है।
(xii) साफ-सफाई और स्वच्छता के लिए जल की उपलब्धता तो और अधिक गंभीर समस्या है। अपर्याप्त साफ-सफाई और मल-जल परिशोधन की कमी के कारण जल संसाधन प्रदूषित हो रहे हैं।
(xiii) जल की समग्र कमी और आर्थिक महत्व के विषय में लोगों में कम जागरूकता होने के कारण जल की बर्बादी और अकुशल उपयोग होता है।
(xiv) वैज्ञानिक आयोजना सूचना प्रौद्योगिकी का प्रयोग करके आधुनिक तकनीक और विश्लेषणात्मक क्षमताओं के उपयोग हेतु पर्याप्त प्रशिक्षित कर्मियों की कमी के कारण अच्छे जल प्रबंधन में बाधा आती है।
(xv) जल संबंधी समस्याओं के विषय में समग्र और अंतर-विषयक दृष्टिकोण नहीं है।
(xvi) जल संबंधी निर्णय लेने वाले प्रभारी सार्वजनिक अभिकरण पणधारियों से परामर्श किए बगैर अपने आप निर्णय लेते हैं जिसके कारण प्रायः खराब और अविश्वसनीय सेवाएं मिलती हैं जिनमें विभिन्न प्रकार की असमानताएं होती हैं।
(xvii) जलधाराओं, नदियों के जलग्रहण-क्षेत्रों और जलभृतों के पुनर्भरण क्षेत्रों की विशेषताएं बदल रही हैं जिसके फलस्वरूप भूमि उपयोग और भू-अवारण में परिवर्तन हो रहा है जिससे जल संसाधन उपलब्धता और गुणवत्ता प्रभावित हो रही है।
जल संसाधनों के विषय में सार्वजनिक नीतियों का संचालन, कतिपय बुनियादी नियमों द्वारा करने की आवश्यकता है ताकि जल संसाधनों की आयोजना, विकास और प्रबंधन के दृष्टिकोणों में कुछ साझापन हो। ये बुनियादी नियम इस प्रकार हैं: l जल संसाधनों की आयोजना, विकास और प्रबंधन, स्थानीय, क्षेत्रीय, राज्यीय और राष्ट्रीय और संदर्भ में मानवीय, सामाजिक और आर्थिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए, एकीकृत और पर्यावरणिक तौर पर सुदृढ़ आधार वाले साझे एकीकृत परिप्रेक्ष्य में संचालित करने की आवश्यकता है।
- जल के उपयोग और आवंटन में समानता और सामाजिक न्याय का नियम अपनाया जाना चाहिए।
- समानता, सामाजिक न्याय और स्थायित्व के लिए सूचित पारदर्शी निर्णय द्वारा अच्छा संचालन बहुत जरूरी है। सार्थक गहन सहभागिता, पारदर्शी और जवाबदेही से निर्णय लेने और जल संसाधनों के विनियमन में मार्गदर्शन देना चाहिए।
- खाद्य सुरक्षा, जीविका तथा सभी के लिए समान और स्थायी विकास हेतु राज्य द्वारा सार्वजनिक धरोहर के सिद्धांत के तहत जल का प्रबंधन सामुदायिक संसाधन के रूप में किए जाने की आवश्यकता है।
- जल, पारिस्थितिकी को बनाए रखने के लिए आवश्यक है और इसलिए न्यूनतम पारिस्थितिकीय आवश्यकताओं को समुचित महत्व दिया जाना चाहिए।
- जल को, पेयजल, सफाई के लिए सर्वप्रथम आवश्यकता और अन्य घरेलू आवश्यकताओं (पशुओं की आवश्यकताओं समेत) खाद्य सुरक्षा हासिल करने, संपोषक कृषि को संबल देने और न्यूनतम पारिस्थितिकीय आवश्यकताओं के लिए उच्च प्राथमिकता वाले आवंटन के बाद आर्थिक वस्तु माना जाना चाहिए ताकि इसका संरक्षण और कुशल उपयोग बढ़ सके।
- जल चक्र के सभी घटक अर्थात वाष्प, वाष्पोत्सर्जन, वर्षण, अपवाह, नदी, झीलें, मृदा नमी और भूमि जल, समुद्र आदि अन्योन्याश्रित होते हैं तथा मूलभूत जल वैज्ञानिक इकाई नदी बेसिन है, जिसे आयोजना के लिए मूलभूत इकाई माना जाना चाहिए।
- उपयोज्य जल संसाधनों की उपलब्धता को बढ़ाने संबंधी विनिर्दिष्ट सीमाओं और जलवायु परिवर्तन के कारण आपूर्तियों में अधिक विषमता को देखते हुए भविष्य की आवश्यकताओं को पूरा करना मांग प्रबंधन पर अधिक निर्भर होगा और इसलिए इसे, विशेषकर (क) एक ऐसी कृषि प्रणाली विकसित करके जिससे जल उपयोग को मितव्ययी बनाया जा सके और जल से अधिकतम लाभ मिल सके, तथा (ख) जल के अधिकतम दक्ष उपयोग को लागू करने और जल की बर्बादी को रोककर उच्च प्राथमिकता देने की आवश्यकता है।
- जल गुणवत्ता और मात्रा एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और इनके एकीकृत ढंग से प्रबंधन की आवश्यकता है जिसके लिए अन्य बातों के साथ-साथ लगातार प्रदूषण और जल बर्बादी को कम करने हेतु आर्थिक प्रोत्साहन और दंड विधियों के उपयोग समेत पर्यावरणीय प्रबंधन के व्यापक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।
- जल संसाधनों की उपलब्धता पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव, जल प्रबंधन संबंधी निर्णयों में एक घटक होना चाहिए। स्थानीय भू-जलवायु विषयक और जल-विज्ञानीय स्थिति को ध्यान में रखते हुए जल के उपयोग वाले कार्यकलापों को विनियमित करने की आवश्यकता है।
2. जल संबंधी ढांचागत कानून
जल के संबंध में समुचित नीतियां, कानून और विनियमन बनाने का अधिकार राज्य का है तथापि, जल संबंधी सामान्य सिद्धांतों का व्यापक राष्ट्रीय जल संबंधी ढांचागत कानून बनाने की आवश्यकता है। ढांचागत कानून, केंद्र, राज्यों और स्थानीय शासी निकायों द्वारा विधायी और/अथवा कार्यकारी (अथवा प्रदत्त) शक्तियों का प्रयोग करने के संबंध में सामान्य नियमों का विस्तृत विवरण परिभाषित करता है। भारतीय सुखाचार अधिनियम, 1882, सिंचाई अधिनियम आदि जैसे मौजूदा अधिनियमों में उस सीमा तक संशोधन करना पड़ सकता है जहां तक ऐसा प्रतीत होता है कि यह अधिनियम भूस्वामी को उसकी भूमि के अंतर्गत भूमि जल के लिए मालिकाना हक प्रदान करता है।
जल के सभी रूपों (वर्षा, मृदा नमी, भूमि और सतही जल समेत) के साथ बेसिन/उप बेसिन को इकाई मानकर इसके एकीकृत परिप्रेक्ष्य में भूमि और जल संसाधनों की वैज्ञानिक आयोजना सुनिश्चित करने और जलग्रहण एवं कमान दोनों क्षेत्रों का समग्र व संतुलित विकास सुनिश्चित करने के लिए अंतरराज्यीय समन्वय को सुलभ बनाने हेतु अंतरराज्यीय नदियों और नदी घाटियों को अनुकूलतम विकास के लिए एक व्यापक विधान की आवश्यकता है।
3. जल के उपयोग
जल घरेलू उपयोग, कृषि, जल विद्युत, ताप विद्युत, नौवहन, मनोरंजन इत्यादि के लिए आवश्यक है। इन विभिन्न प्रकार के उपयोगों के लिए जल का इष्टतम उपयोग किया जाना चाहिए तथा जल को एक दुर्लभ संसाधन मानने के लिए जागरूकता फैलानी चाहिए। केंद्र, राज्यों और स्थानीय निकायों (संचालक संस्थाएं) को उसके सभी नागरिकों को आवश्यक स्वास्थ्य और स्वच्छता के लिए स्वच्छ जल की न्यूनतम मात्रा की उपलब्धता सुनिश्चित करनी चाहिए, जिसे परिवार के सदस्य आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। यह मानते हुए कि नदी प्रवाह में न्यूनतम अथवा शून्य प्रवाह, लघु बाढ़ (फ्रेशेट्स), बड़ी बाढ़ आदि के रूप में विविधता होती है, नदी की पारिस्थितिकी आवश्यकताएं विकासात्मक आवश्यकताओं को शामिल करते हुए वैज्ञानिक अध्ययन द्वारा निर्धारित की जानी चाहिए। नदी प्रवाह का एक हिस्सा पारिस्थितिकीय आवश्यकता को पूरा करने के लिए अलग रखा जाना चाहिए जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि न्यून और अधिक प्रवाह विनियमित भूमि जल उपयोग के माध्यम से कम प्रवाह वाले मौसम में आधार प्रवाह सहयोग के साथ प्राकृतिक प्रवाह पद्धति के आनुपातिक हो। भारत के विपुल जल मात्रा वाले पूर्वी और पूर्वोत्तर क्षेत्र में जल उपयोग अवसंरचना कमजोर है, खाद्य सुरक्षा के लिए इसे सुदृढ़ किए जाने की आवश्यकता है।
समुदाय को जल की स्थानीय उपलब्धता के अनुसार लंबी दूरी से अंतरण करके जल उपलब्ध कराने से पहले जल का उपयोग करने के लिए अनुकूलित किए जाने हेतु जागरूक बनाया जाना चाहिए और प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। समुदाय आधारित जल प्रबंधन सांस्थानिकृत और सुदृढ़ किया जाना चाहिए।
4. जलवायु परिवर्तन के अनुरूप अनुकूलन
जल संसाधन संरचनाओं अर्थात बांध, बाढ़ सुरक्षा तटबंध, ज्वार सुरक्षा तटबंध आदि की आयोजना और प्रबंधन में संभावित जलवायु परिवर्तनों से निपटने वाली कार्यनीतियां शामिल होनी चाहिए। अनुकूलन कार्यनीतियों में अन्य बातों के साथ-साथ जल का उसके विभिन्न रूपों अर्थात् मृदा नमी, तालाब, भूमि जल, लघु और बड़े जलाशयों में और उनके संयोजन में अधिक जल भंडारण शामिल हो सकते हैं, जो जलवायु परिवर्तन के कारण विषमता में वृद्धि से निपटने के लिए तंत्र उपलब्ध कराते हैं। अनुकूलन कार्यनीतियों में विशेषतः संगत कृषि कार्यनीतियां और फसलीय चक्रों तथा जल अनुप्रयोग पद्धतियों जैसे भूमि समतलीकरण तथा/अथवा टपक/छिड़काव सिंचाई को अपनाकर बेहतर मांग प्रबंधन को भी शामिल किया जा सकता है क्योंकि इससे जल उपयोग दक्षता में वृद्धि होती है तथा जलवायु परिवर्तन के कारण विषमता के बढ़ने का समाधान करने के लिए क्षमता प्राप्त की जा सकती है। इसी तरह औद्योगिक प्रक्रियाओं में जलीय दक्षता को बढ़ाया जा सकता है। विभिन्न कृषिगत कार्यनीतियों को विकसित करके, मृदा कटाव को कम करके और मृदा उर्वरता में सुधार करने के लिए स्थानीय शोध और शैक्षिक संस्थानों से वैज्ञानिक ज्ञान-आधारित भूमि-मृदा-जल प्रबंधन में हितधारकों की सहभागिता को प्रोत्साहित करना चाहिए।
5. उपयोग हेतु उपलब्ध जल में वृद्धि करना
देश के विभिन्न बेसिनों तथा राज्यों के विभिन्न हिस्सों में जल संसाधन की उपलब्धता तथा इनके उपयोग का वैज्ञानिक पद्धति से आकलन और आवधिक रूप से अर्थात प्रत्येक पांच वर्ष में, समीक्षा किए जाने की आवश्यकता है।
वर्तमान अनुमान के अनुसार, भारत में प्रति वर्ष औसतन लगभग 4000 बिलियन घन मीटर (बीसीएम) वर्षा होती है जो कि इसका मूलभूत जल संसाधन है। इसमें से प्राकृतिक वाष्पीकरण-वाष्पोत्सर्जन के बाद नदियों एवं जलभृतों के माध्यम से औसत वार्षिक प्राकृतिक प्रवाह लगभग 1869 बिलियन घन मीटर (बीसीएम) है। यदि बड़े अंतरबेसिन अंतरण को छोड़ दिया जाए तो इनमें से वर्तमान कार्यनीतियों से केवल लगभग 1123 बीसीएम जल उपयोग योग्य है। जल की बढ़ती हुई मांग को पूरा करने के लिए उपयोग हेतु जल की उपलब्धता को बढ़ाए जाने की आवश्यकता है। उपयोग योग्य जल संसाधन में वृद्धि के लिए वर्षा का प्रत्यक्ष उपयोग एवं अपरिहार्य वाष्प-वाष्पोत्सर्जन को कम करना नई अतिरिक्त कार्यनीतियां हैं। देश में भूजल संसाधन (पुनर्भरणीय एवं गैर-पुनर्भरणीय दोनों) की मात्रा एवं गुणवत्ता जानने के लिए जलभृतों की स्थिति का पता लगाने की आवश्यकता है। इस प्रक्रिया में स्थानीय समुदायों को शामिल करते हुए पूर्ण रूप से सहभागिता को बढ़ाया जाना चाहिए। अति-दोहित क्षेत्रों में जल उपयोग की उन्नत तकनीकें अपनाकर, जल के कुशल उपयोग को प्रोत्साहन देकर और जलभृतों के समुदाय आधारित प्रबंधन को बढ़ावा देकर भूजल स्तर में गिरावट को रोके जाने की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त जहां आवश्यक हो, कृत्रिम पुनर्भरण परियोजनाएं शुरू की जानी चाहिए जिससे जल की निकासी पुनर्भरण से कम हो।
जल के अंतरबेसिन अंतरण का निर्धारण प्रत्येक मामले की विशेषताओं के आधार पर ऐसे अंतरणों के पर्यावरणीय, आर्थिक और सामाजिक प्रभावों का मूल्यांकन करके विचार किया जाना चाहिए।
मृदा में नमी बढ़ाने, गाद में कमी लाने एवं समग्र भूमि व जल उत्पादकता को बढ़ाने के लिए जल ग्रहण क्षेत्र विकास क्रियाकलापों को व्यापक रूप से क्रियान्वित किए जाने की आवश्यकता है। किसानों द्वारा खेत के तालाबों एवं मृदा व जल संरक्षण के अन्य उपाय अपनाकर वर्षा जल संचयन के लिए एमजीएनआरईजीए जैसे चालू कार्यक्रमों का लाभ उठाया जा सकता है।
6. मांग प्रबंधन एवं जल उपयोग दक्षता
विभिन्न प्रयोजनों के लिए जल उपयोग हेतु बेंचमार्क विकसित करने की एक प्रणाली अर्थात जल के कुशल उपयोग को प्रोत्साहित करने एवं बढ़ावा देने के लिए विभिन्न प्रयोजनों हेतु जल उपयोग के लिए मानदंड निर्धारित करने की प्रणाली अर्थात जल खपत-स्तर और जल लेखा-जोखा विकसित की जानी चाहिए। विशेषतः औद्योगिक परियोजनाओं के लिए जल उपयोग हेतु परियोजना मूल्यांकन एवं पर्यावरणीय प्रभाव अध्ययन से अन्य बातों के साथ-साथ जल उपयोग हेतु जल फुटप्रिंटों के विश्लेषण को शामिल करना चाहिए। वापसी के प्रवाह सहित जल के पुनर्चक्रण एवं पुनःउपयोग को बढ़ावा देने के सामान्य नियम को अपनाना चाहिए।
सिंचाई उपयोग में जल बचाना अत्यधिक महत्वपूर्ण है। प्राकृतिक संसाधन अक्षय निधि के अनुसार फसल प्रणाली, सूक्ष्म सिंचाई (टपक, छिड़काव आदि), स्वचालित सिंचाई प्रचालन, वाष्पीकरण-वाष्पोत्सर्जन न्यूनीकरण आदि जैसी पद्धतियों को बढ़ावा एवं प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। भूजल के संयुक्त उपयोग से नहर के रिसन जल का पुनर्चक्रण किए जाने पर भी विचार किया जा सकता है।
छोटे बंधों, खेत तालाबों, कृषि एवं अभियांत्रिकी पद्धतियों और जलग्रहण क्षेत्र विकास के तरीकों आदि के माध्यम से स्थानीय स्तर की अत्यधिक लघु सिंचाई को बढ़ावा दिए जाने की आवश्यकता है। तथापि, उनकी बाह्यताओं, सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों जैसे अनुप्रवाह में गाद में कमी आना तथा जल उपलब्धता में कमी आना, को ध्यान में रखा जाए।
7. जल का मूल्य निर्धारण
जीवन एवं पारिस्थितिकी को कायम रखने के लिए जल के अग्रणी तथा अन्य प्राथमिक उपयोग के लिए विशिष्ट मूल्यन के नियम को जारी रखना चाहिए। इन उपयोगों के अलावा जल का उपयोग आर्थिक नियमों के आधार पर इसके अधिकाधिक आवंटन और मूल्यन पर निर्भर है। प्रत्येक राज्य में एक जल विनियामक प्राधिकरण (डब्ल्यूआरए) स्थापित किया जाना चाहिए। प्राधिकरण अन्य बातों के साथ-साथ सामान्यतः इस नीति में उल्लिखित नियमों के अनुसार स्वायत्त रूप से जल शुल्क प्रणाली तथा प्रभारों को नियत और विनियमित करेगा। इन शुल्कों और प्रभारों की आवधिक समीक्षा की जाएगी।
जल प्रयोक्ता संघों को जल शुल्क एकत्रित करने एवं एक हिस्सा रखने, उन्हें आवंटित जल की मात्रा का प्रबंधन करने और उनके अधिकार क्षेत्र में वितरण प्रणाली के रखरखाव के लिए वैधानिक शक्तियां दी जानी चाहिए। जल प्रयोक्ता संघों को डब्ल्यूआरए द्वारा निर्धारित की गई मूल दरों के अनुसार दरों को नियत करने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए।
8. नदी क्षेत्रों, जल स्रोतों एवं अवसंरचना का संरक्षण
नदी क्षेत्रों, जल निकायों एवं अवसंरचना का संरक्षण सामुदायिक सहभागिता के माध्यम से एक नियोजित पद्धति से शुरू किया जाना चाहिए। जल स्रोतों (जैसे नदियां, झीलें, टैंक, तालाब, आदि) और जल निकास मार्गों (सिंचित क्षेत्र और शहरी क्षेत्र जल निकास) का अतिक्रमण एवं पथांतरण नहीं होने देना चाहिए, और जहां भी ऐसा हुआ है, इसे व्यवहार्य सीमा तक पुनःस्थापित कर समुचित रूप से अनुरक्षित किया जाना चाहिए। संरक्षित प्रतिप्रवाह क्षेत्रों के जलाशयों/जल निकायों, संदूषण, कम पुनर्भरणीय तथा संकटपूर्ण वन एवं मानव जीवन वाले मुख्य जलभृत पुनर्भरण क्षेत्रों में शहरी पुनःस्थापन, अतिक्रमण तथा विकासात्मक गतिविधियां की जानी चाहिए।
जल के उद्गम स्थलों तथा जल स्रोतों को प्रदूषित नहीं होने देना चाहिए। आवधिक तृतीय पक्ष निरीक्षण की प्रणाली विकसित की जानी चाहिए और प्रदूषण के लिए जिम्मेदार लोगों के विरुद्ध कड़ी दंडात्मक कार्रवाई की जानी चाहिए। भूजल के लिए गुणवत्ता को बनाए रखना और इसमें सुधार और भी अधिक महत्वपूर्ण हैं, चूंकि इसे स्वच्छ बनाना अत्यंत कठिन है। यह सुनिश्चित किए जाने की आवश्यकता है कि औद्योगिक बहिःस्राव स्थानीय भंडारण, उर्वरकों एवं रसायनों के अवशेष आदि भूजल तक न पहुंचे। कानूनी अधिकार प्राप्त बांध सुरक्षा सेवाएं राज्यों में और केंद्र में भी सुनिश्चित किए जाने की आवश्यकता है।
9. परियोजना की आयोजना एवं कार्यान्वयन
जल संसाधन परियोजनाओं की आयोजना विभिन्न स्थितियों के लिए निर्धारित दक्षता मानदंडों के अनुसार की जानी चाहिए। निर्धारित समय एवं लागत से अधिक समय व लागत से बचने के लिए समय पर परियोजना के निरीक्षण हेतु, राज्य एवं केंद्र स्तर पर समवर्ती निगरानी शुरू की जानी चाहिए। जल संसाधन परियोजनाओं के सभी घटकों की आयोजना एवं निष्पादन समान रूप से किया जाना चाहिए जिससे अभीष्ट लाभ तुरंत मिलने शुरू हो जाएं और सृजित क्षमता व उपयोग की गई क्षमता के बीच कोई अंतर न हो। परियोजनाओं के कार्यान्वयन में विलंब के कारण हुए भारी आर्थिक नुकसान को ध्यान में रखते हुए पर्यावरणीय एवं निवेश स्वीकृतियों सहित सभी स्वीकृतियां समयबद्ध की जानी चाहिए। स्थानीय शासी निकायों जैसे पंचायतों, नगरपालिकाओं निगमों आदि और जल प्रयोक्त संघों को, जहां भी इसका संबंध हो, परियोजनाओं की आयोजना एवं कार्यान्वयन में शामिल किया जाएगा। जल विद्युत परियोजनाओं सहित सभी जल संसाधन परियोजनाओं की आयोजना अधिकतम व्यवहार्य सीमा तक बहुउद्देशीय परियोजनाओं के रूप में की जानी चाहिए जिनमें उपलब्ध सांस्थितिकी एवं जल संसाधन से अधिकतम लाभ लेने के लिए भंडारण का प्रावधान हो।
10. बाढ़ एवं सूखे के लिए पूर्व-तैयारी
बाढ़ एवं सूखे जैसी जल संबंधी आपदाओं को रोकने के लिए हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए। साथ ही प्राकृतिक जल निकास प्रणाली के पुनर्स्थापन पर भी अत्यधिक जोर दिया जाना चाहिए। सूखे से निपटने के लिए विभिन्न कृषि कार्यनीतियों को विकसित करने तथा मृदा एवं जल उत्पादकता में सुधार करने के लिए स्थानीय, अनुसंधान एवं वैज्ञानिक संस्थानों से प्राप्त वैज्ञानिक जानकारी सहित भूमि, मृदा, ऊर्जा एवं जल प्रबंधन करना चाहिए। आजीविका सहायता और गरीबी उपशमन के लिए समेकित खेती प्रणालियों और गैर कृषि विकास पर भी विचार किया जा सकता है।
बाढ़ पूर्वानुमान, बाढ़ का सामना करने के लिए तैयार रहने के लिए अति महत्वपूर्ण है तथा इसका देश भर में सघन विस्तार और वास्तविक समय आंकड़ा संग्रहण प्रणाली का उपयोग करते हुए आधुनिकीकरण किया जाना चाहिए और इसे पूर्वानुमान मॉडल से जोड़ा जाना चाहिए।
क्रमशः राष्ट्रीय जल नीति 2012 भाग - 2
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