भारत में कृषि का इतिहास अत्यंत प्राचीन अर्थात लगभग हजारों वर्षों पुराना है। एक कृषि प्रधान देश होने के कारण, भारत की अधिकांश जनसंख्या की आजीविका और लगभग 60 प्रतिशत आबादी की आय का मुख्य स्रोत कृषि है। स्वतंत्रता के बाद के वर्षों से भारत के कृषि उत्पादन में निरंतर वृद्धि हुई है, जिसने भारत को न केवल आत्मनिर्भर बनाया अपितु कृषि और इससे संबद्ध उत्पादों का निर्यातक भी बना दिया। 2022-23 में अनुमानित कुल खाद्यान्न उत्पादन 329.68 मिलियन टन हुआ। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के प्राकलन के अनुसार, वर्ष 2030 तक खाद्यान्नों की मांग 345 मिलियन टन तक बढ़ जाएगी।
वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार, ‘‘वित्त वर्ष 2022-23 में भारत का कृषि निर्यात 53.1 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया, जिसमें एपीडा (कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण) ने भारत के कृषि निर्यात में 51 प्रतिशत का महत्वपूर्ण योगदान दिया।”
आईसीएआर के अनुसार, भारत में विस्तृत कृष्य भूमि है, जो 15 कृषि जलवायवी अनुक्षेत्रों (कृषि के लिए अनुकूल जलवायु वाला क्षेत्र-विशेष) में कृषि हेतु उपयुक्त है। इन 15 कृषि अनुक्षेत्रों को कृषि जलवायु-संबंधी विशेषताओं, विशिष्ट रूप से मृदा प्रकार [मृदा श्रेणी का वह प्रभाग जो मुख्यतः ऊपरी परतों (बालू, गाद, मृत्तिका आदि) के गठन पर निर्भर करता है।], जलवायु, तापमान तथा वर्षा, और उनकी विविधता एवं जल संसाधनों की उपलब्धता, के आधार पर विभाजित किया गया है। भारत में सभी प्रकार के मौसम तथा मृदा प्रकार पाए जाते है। इसलिए, भारत कई प्रकार की फसलें उगाने में सक्षम है। भारत दूध, मसालों, दालों, चाय, काजू, जूट, चावल, गेहूं, तिलहनों, फलों और सब्जियों, तथा गन्ने और कपास का सबसे बड़ा उत्पादक है।
भारत में प्रचलित प्रमुख कृषि पद्धतियां
भौगोलिक स्थितियों के अनुरूप भारत में विभिन्न प्रकार की कृषि पद्धतियों का प्रयोग किया जाता है, जैसे कि निर्वाह सस्यन (जीविका खेती), जैविक कृषि, और बागवानी पर आधारित वाणिज्यिक कृषि, चरागाह में कृषि और कृषिवानिकी आदि। उत्पादकता, क्षेत्र विशेष की भौगोलिक स्थिति पर निर्भर करती है। भारत में प्रचलित कृषि पद्धतियों का निर्धारण भूमि की प्रकृति (या गुण), जलवायविक विशेषताएं और सिंचाई की उपलब्ध सुविधाएं करती हैं। भारत में कृषि पद्धतियों के निम्नलिखित प्रकार प्रचलित हैं:
स्थानांतरी कृषिः कृषि की इस पद्धति में, वृक्षों को गिराकर, और उनके तनों तथा शाखाओं को जलाकर वन भूमि के एक हिस्से को साफ किया जाता है। भूमि को साफ करने के पश्चात, कुछ वर्षों तक यहां फसलें उगाई जाती हैं, और फिर भूमि को छोड़ दिया जाता है क्योंकि उसकी मृदा अपनी उर्वरता खो देती है। तत्पश्चात, कृषक किसी नए क्षेत्र में जाते हैं और पुनः इसी प्रक्रिया को दोहराते हैं। भारत में लगभग 1.73 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर स्थानांतरी (झूम) कृषि की जाती है। इस प्रकार की कृषि में, सामान्यतया उगाई जाने वाली फसलें सूखा धान, मक्का, श्री अन्न (ज्वार-बाजरा आदि) और सब्जियां हैं। स्वेदशी समुदायों को इसका प्रयोग करने से हतोत्साहित करने के लिए किए जाने वाले विभिन्न प्रयासों के बावजूद, पूर्वोत्तर भारत में व्यापक रूप से इस पद्धति का प्रयोग किया जाता है।
निर्वाह सस्यनः निर्वाह सस्यन या जीविका खेती से तात्पर्य उस कृषि से है, जो किसी व्यक्ति द्वारा अपने उपभोग के लिए की जाती है, अर्थात, कृषक और उसका परिवार अनाज का उत्पादन अपने निर्वाह और स्थानीय बाजार, यदि उनके पास अतिरिक्त अनाज हो, के लिए करता है। इसे छोटे तथा बिखरे हुए जोतों, और साधारण उपकरणों के प्रयोग से अभिलक्षित किया जाता है। चूंकि, ये कृषक आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों से होते हैं, इसलिए इनमें से अधिकांश उर्वरकों, उच्च गुणवत्ता वाले बीजों, और कृषि के उत्तम और महंगे उपकरणों पर खर्च करने में समर्थ नहीं होते।
गहन कृषिः गहन कृषि, परिस्थितियों के अधीन यथासंभव प्रयासों से, सीमित खेतों में अधिकतम संभव उत्पादन करने का प्रयत्न करती है। यह मृदा जुताई की सबसे विशिष्ट पद्धति और विश्व भर में भोजन का प्रमुख स्रोत है जैसा कि यह एक वर्ष में एक से अधिक फसलोत्पादन करने में समर्थ है। अतः, किसानों द्वारा भूमि पर अत्यधिक धन तथा मानव श्रम का निवेश किया जाता है। गहन कृषि किफायती मूल्यों पर पर्याप्त खाद्यान्न उत्पन्न करने के उद्देश्य से की जाती है।
विस्तीर्ण खेतीः यह कृषि की एक आधुनिक पद्धति है, जिसे बड़े आकार वाले खेतों में मशीनों की सहायता से किया जाता है। इसी कारण, विस्तीर्ण खेती को यांत्रिक कृषि के रूप में भी जाना जाता है। इस प्रकार की कृषि में किसान एक वर्ष में केवल एक ही फसल उगाता है। इसमें प्रति हेक्टेयर भूमि पर तुलनात्मक रूप से कम श्रमिकों तथा पूंजी की आवश्यकता होती है। इस प्रकार की कृषि मुख्य रूप से मृदा की प्राकृतिक उर्वरता, भू-भाग, जलवायु और जल की उपलब्धता पर निर्भर होती है।
रोपण कृषिः कृषि के इस रूप में पूरे वर्ष के लिए रबर, चाय, नारियल, कॉफी, कोको, मसालों फल की फसलें आदि जैसी एकल फसलें बोई जाती हैं, और सामान्यतया कई वर्षों तक लगातार उपज प्राप्त की जाती है। इसमें विस्तृत क्षेत्रों में झाड़ियों (झाड़ीदार पौधों) या वृक्षों की कृषि शामिल होती है। यह पूंजी-केंद्रित कृषि है और कुशल प्रबंधकीय क्षमता, तकनीकी ज्ञान, उन्नत मशीनरी, उर्वरक, सिंचाई, और परिवहन सुविधाओं की मांग करती है। यह एक निर्यातोन्मुखी कृषि है जो केरल, कर्नाटक, असम तथा महाराष्ट्र में प्रचलित है।
वाणिज्यिक कृषिः वाणिज्यिक कृषि का प्रयोग कृषि उत्पाद को अन्य देशों में निर्यात करने हेतु अधिक अनुपात में फसल उगाने के लिए किया जाता है। इस प्रकार की कृषि विरल जनसंख्या वाले क्षेत्रों में की जाती है। यह गुजरात, पंजाब, हरियाणा, और महाराष्ट्र में प्रचलित है। गेहूं, कपास, गन्ना, मक्का आदि कुछ वाणिज्यिक फसलें हैं।
शुष्क कृषिः इस प्रकार की कृषि पश्चिमी, पश्चिमोत्तर और मध्य भारत जैसे उन क्षेत्रों में सिंचाई रहित फसलोत्पादन करने के लिए की जाती है, जहां वार्षिक रूप से लगभग 750 एमएम से 50 एमएम या उससे भी कम वर्षा और सिंचाई के लिए अपर्याप्त सुविधा होती है। इसमें, विशेष प्रकार की फसलें उगाने के माध्यम से नमी को संधृत (या नियंत्रित) किया जाता है। शुष्क शस्यों में चना, ज्वार, बाजरा, और मटर शामिल हैं।
आर्द्रभूमि कृषिः आर्द्रभूमि कृषि मुख्यतः वर्षा पर निर्भर करती है। अतः, यह उत्तर, पूर्वोत्तर तथा पश्चिमी घाटों के ढलान वाले उन क्षेत्रों में प्रचलित है, जहां अधिक वर्षा तथा सिंचाई की उचित सुविधाएं मौजूद हैं। आर्द्रभूमि कृषि के तहत चावल (धान), जूट और गन्ना उगाए जाते हैं।
वेदिका कृषिः वेदिका (सीढ़ीदार) कृषि पहाड़ी की ढलानों पर उगाई जाने वाली फसलों को संदर्भित करती है। इस प्रयोजन के लिए, वेदिकाएं (सीढ़ियां) बनाने हेतु पहाड़ियों और पहाड़ों की खड़ी ढलानों को काटा जाता है और कृषि हेतु उस भूमि का प्रयोग किया जाता है। वेदिका कृषि समतल भूमि की उपलब्धता के अभाव के कारण की जाती है। पहाड़ियों की ढलानों पर वेदिका बनाने के कारण मृदा अपरदन को भी नियंत्रित किया जाता है। वेदिका कृषि उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और पूर्वोत्तर भारत के कुछ हिस्सों में की जाती है।
फसलों के प्रकार
ऋतुओं के आधार पर भारत में निम्नलिखित फसलें उगाई जाती हैं:
खरीफ फसलः ये फसलें मानसून या वर्षा ऋतु के प्रारंभ से शीत ऋतु के आरंभ होने तक अर्थात जनू-जुलाई से सितंबर-अक्टूबर तक उगाई जाती हैं। चावल (धान), मक्का, मोटा अनाज या श्री अन्न, कपास, मूंगफली, मूंग, उड़द आदि कुछ खरीफ फसलें हैं।
रबी फसलः रबी फसलों को शीत ऋतु के आरंभ से ग्रीष्म ऋतु के प्रारंभ होने तक बोया जाता है, अर्थात, अक्टूबर-नवंबर से मार्च-अप्रैल तक। रबी की मुख्य फसलों में गेंहू, जौ, मटर, चना, और तिलहन शामिल हैं।
जायद फसलें: इन फसलों को खरीफ और रबी की ऋतुओं के बीच ग्रीष्म ऋतु की अल्पावधि में उगाया जाता है। तरबूज, खीरा, कद्दू, करेला आदि कुछ जायद फसलों में से हैं।
भारत में जैविक कृषि
हजारों वर्षों से भारत में जैविक कृषि की जा रही है। भारत की महान सभ्यता जैविक कृषि पर पनपी और भारत में अंग्रेजों का शासन शुरू होने तक, यह विश्व में सबसे अधिक समृद्ध देशों में से एक था। रासायनिक कृषि की ओर स्थानांतरित होने से पूर्व, भारत में जैविक तकनीकों के प्रयोग के माध्यम से की जाने वाली जैविक कृषि प्रचलित थी, जहां उर्वरक, कीटनाशक आदि पादप और पशु उत्पादों जैसे कि गाय के गोबर, वानस्पतिक खाद आदि से प्राप्त किए जाते थे।
1950 और 1960 के दशकों में, भारत में अनेक प्राकृतिक आपदाएं आई। इस अवधि के दौरान, जनसंख्या में अचानक उछाल भी आया, जिसने देश में गंभीर खाद्य संकट में वृद्धि की। बढ़ती हुई आबादी की खाद्य आपूर्ति के लिए सरकार को खाद्यान्नों का आयात करना पड़ा। यह आशंका थी कि 1970 के दशक के मध्य में भूख से लाखों गरीब भारतीय मारे जाएंगे। इसलिए देश में तीव्रता से खाद्यान्नों के उत्पादन में वृद्धि करने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी।
अतः, सरकार को देश में अधिक खाद्यान्न उत्पन्न करते हेतु एम.एस. स्वामीनाथन के नेतृत्व में हरित क्रांति को अपनाना पड़ा। अधिक से अधिक भूमि को कृषि के अंतर्गत लाया गया और कृषि में संकरित (हाइब्रिड) बीजों, रासायनिक उर्वरकों, तथा रासायनिक कीटनाशकों का प्रवेश हुआ।
हरित क्रांति के परिणामस्वरूप, प्रत्येक गुजरते वर्ष के साथ खाद्यानों के आयात में कमी आने लगी। 1990 तक, भारत आत्मनिर्भर बन गया, और इसने अधिशेष खाद्यान्नों का अन्य देशों में निर्यात करना भी शुरू कर दिया।
जैसे-जैसे समय बीतता गया, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों ने अपने प्रभाव दिखाने शुरू कर दिए। भूमि अपनी उर्वरता खोने लगी और फसल उत्पादन के लिए और अधिक उर्वरकों की आवश्यकता होने लगी। कीट, कीटनाशकों के प्रति प्रतिरक्षित होने लगे, जिसने किसानों को और अधिक प्रभावशाली (या तीव्र) कीटनाशकों का प्रयोग करने पर विवश कर दिया। इस प्रकार, रासायनिक उर्वरकों तथा तीव्र कीटनाशकों ने न केवल मनुष्यों को नुकसान पहुंचाया बल्कि कृषि के लिए बढ़ती लागत ने किसानों को ऋण लेने के लिए भी विवश कर दिया। जबकि, कृषि की जैविक पद्धति पारिस्थितिक संतुलन को सुधारती, अनुरक्षित और उन्नत करती है।
जैविक कृषि निम्नलिखित सिद्धांतों पर आधारित हैः
(i) स्वास्थ्य का सिद्धांतः लोगों और पारिस्थितिकी के स्वास्थ्य का अनुरक्षण करना;
(ii) पारिस्थितिकी का सिद्धांतः पारिस्थितिक तंत्र तथा पर्यावरण के बीच एक उचित संतुलन बनाना;
(iii) निष्पक्षता का सिद्धांतः मानव संबंधों तथा जीवन शैली को अनुकूल बनाए रखना; और
(iv) संरक्षण का सिद्धांतः पर्यावरण के वर्तमान और भविष्य के बारे में विचार करना।
जैविक कृषि की तकनीकें: भारत में जैविक कृषि पद्धतियों की कुछ तकनीकें निम्नलिखित हैं:
मृदा प्रबंधनः खेत में जुताई के बाद, मृदा अपने पोषक तत्व खो देती है और इसके निषेचक समाप्त हो जाते हैं। इसलिए, मृदा को उसके सभी आवश्यक पोषण तत्वों के साथ पुनर्जीवित करने के लिए जैविक कृषि की मृदा प्रबंधन तकनीक का प्रयोग किया जाता है। जैविक कृषि में, मृदा की उर्वरता को बढ़ाने के लिए पशु मल में पाए जाने वाले बैक्टीरिया के माध्यम से प्राकृतिक तरीकों का प्रयोग किया जाता है। बैक्टीरिया मृदा को अधिक उर्वर और लाभकारी बनाने में सहायता करता है।
खरपतवार प्रबंधनः खरपतवार (अपतृण) वे अवांछित पौधे होते हैं, जो फसलों के साथ स्वतः उग जाते हैं और मृदा के पोषक तत्वों को अवशोषित कर लेते हैं तथा फसल की वृद्धि को प्रभावित करते हैं। अतः, समय-समय पर खरपतवार को काटकर या हाथों से निकालकर अथवा पलवारन (घास-पात से ढककर), जिसमें किसान खरपतवार की वृद्धि को नियंत्रित/रोकने के लिए मृदा की सतह पर प्लास्टिक की फिल्म या पौधों के अवशेषों का प्रयोग करते हैं, के माध्यम से हटाना होता है।
फसल विविधताः इस तकनीक में, उपज की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए विभिन्न फसलों की खेती एक साथ की जाती है।
रसायन प्रबंधनः फसलों को ऐसे हानिकारक कीटों या जीवाणुओं, जो फसल की वृद्धि को प्रभावित करते हैं, से बचाने के लिए कीटनाशकों और शाकनाशियों (खरपतवार नाशक या उसकी वृद्धि को संदर्भित करने वाला रसायन) के संतुलित मिश्रण का उपयोग किया जाता है। चूंकि कृषि फार्म में उपयोगी और हानिकारक जीव होते हैं, इसलिए फसलों को कीटों से सुरक्षित रखने के लिए उनकी उचित देखभाल करना आवश्यक है।
जैव पीड़क नियंत्रणः इस पद्धति में, किसान फसल को प्रभावित करने वाले हानिकारक कीटों को नियंत्रित करने के लिए कीटनाशकों के स्थान पर जीवित जीवों का प्रयोग करते हैं।
भारत में जैविक कृषि की स्थितिः एफआईबीएल एंड आईएफओएम—ऑर्गेनिक इंटरनेशनल द्वारा जारी वर्ल्ड ऑफ ऑर्गेनिक एग्रिकल्चर 2024 रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान में, जैविक कृषि करने वाले किसानों की संख्या के संदर्भ में भारत प्रथम स्थान, और जैविक कृषि के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र के संबंध में द्वितीय स्थान पर है। वर्ष 2016 में सिक्किम विश्व में पूर्ण रूप से जैविक कृषि करने वाला पहला जैविक राज्य बना। भारत के पूर्वोत्तर भाग में देश के अन्य भागों की तुलना में परंपरागत रूप से जैविक साधनों और कम से कम रसायनों का उपयोग किया जाता है। इसी प्रकार, भारत के जनजातीय और द्वीपीय क्षेत्रों में पहले से ही जैविक कृषि की जाती है। सभी राज्यों में से, मध्य प्रदेश जैविक प्रमाणीकरण के संदर्भ में सर्वाधिक भू-क्षेत्र का आवरण करता है, जिसके पश्चात राजस्थान, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, तथा कर्नाटक का स्थान है।
भारत में लगभग 4.73 मिलियन हेक्टेयर भू-क्षेत्र पर जैविक कृषि की जाती है। तिलहन, चाय, कॉफी, सूखे मेवे, श्री अन्न, अनाज, मसाले आदि भारत में उगाए जाने वाले कुछ प्रमुख जैवोत्पाद हैं। भारत विकसित देशों को जैविक खाद्य पदार्थों की आपूर्ति करने वाले प्रमुख आपूतिकर्ताओं में से एक है।
रिसर्च इंस्टिट्यूट ऑफ ऑर्गेनिक एग्रिकल्चर (FiBL) और इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ ऑर्गेनिक एग्रिकल्चर मूवमेंट्स (IFOAM) स्टैटिस्टिक्स 2022 द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान में भारत सभी प्रकार के खाद्य उत्पादों, जैसे तिलहन, गन्ना, अनाज और श्री अन्न, कपास, दालें, सुगंधित एवं औषधीय पौधे, चाय, कॉफी, फल, मसाले, सूखे मेवे, सब्जियां, प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ आदि, सहित जैविक उत्पादों की कृषि हेतु प्रयुक्त प्रमाणित क्षेत्र के मामले में चौथे स्थान पर है।
भारत ने वर्ष 2023-24 के दौरान लगभग 3.6 मिलियन मीट्रिक टन प्रमाणित जैविक उत्पादों का उत्पादन किया। एपीडा के अनुसार, वर्ष 2023-2024 के दौरान जैविक उत्पादों के निर्यात की कुल मात्रा लगभग 2,61,029 मीट्रिक टन थी और जैविक खाद्य निर्यात प्राप्ति का मूल्य लगभग 494.80 मिलियन अमेरिकी डॉलर था।
रासायनिक कृषि के प्रतिकूल प्रभावों के कारण जैविक कृषि की न केवल भारत में, बल्कि संपूर्ण विश्व में सराहना की जा रही है। धीरे-धीरे भारत में अब उपभोक्ता और किसान जैविक कृषि की ओर लौट रहे हैं। इस प्रकार, परंपरागत कृषि पद्धतियों की ओर लौटना पर्यावरण की संधारणीयता तथा खाद्य सुरक्षा की ओर एक अभिगम है। इसके अलावा, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप जैसे विकसित देशों ने अपने यहां अजैविक खाद्य पदार्थों के लिए कठोर मानक बनाए हैं, जिन्होंने भारत से निर्यात होने वाले कृषि उत्पादों को प्रभावित किया है।
2016 में, वैश्विक जैविक खाद्य बाजार का मूल्य 90 बिलियन अमेरिकी डॉलर था और वर्तमान विकास स्तरों पर वर्ष 2025 के अंत तक इसके 230-280 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंचने की संभावना है। वर्ल्ड ऑफ ऑर्गेनिक एग्रिकल्चर 2024 रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2022 में विश्व जैविक खाद्य बाजार का मूल्य लगभग 144 बिलियन अमेरिकी डॉलर था। दूसरी ओर, वर्ष 2023 में भारत के जैविक बाजार का मूल्य लगभग 1.58 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया, जो वैश्विक जैविक बाजार की तुलना में बहुत कम है। इस प्रकार, इस क्षेत्र में विकास की योजना बनाने, विस्तार करने और समग्र आर्थिक विकास हासिल करने के लिए निश्चित एवं सतत उपाय किए जाने की आवश्यकता है।
जैविक कृषि का संवर्धन
जैविक कृषि को प्रोत्साहन देने के लिए शुरू की गई विभिन्न सरकारी योजनाओं का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है:
वर्ष 2015 में जैविक कृषि को अपनाने में किसानों की सहायता करने, और कीमतों में वृद्धि से पारिश्रमिक में सुधार करने हेतु मिशन ऑर्गेनिक वैल्यू चेन डेवलेपमेंट फॉर नॉर्थ ईस्ट रीजन (एमओवीसीडी-एनईआर) तथा परंपरागत कृषि विकास योजना (पीकेवीवाई) शुरू की गई। एमओवीसीडी-एनईआर योजना के तहत तीन वर्षों के लिए जैविक आदान (इनपुट), 25,000 रुपये प्रति हेक्टेयर, प्रदान किए जाते हैं, जबकि पीकेवीवाई योजना के अंतर्गत जैविक आदानों का उपयोग करने के लिए एक प्रोत्साहन राशि के रूप में तीन वर्षों के लिए 50,000 रुपये प्रति हेक्टेयर की सहायता प्रदान की जाती है, जिसमें से 62 प्रतिशत (31,000 रुपये) प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डीबीटी) के माध्यम से दिया जाता है।
मृदा स्वास्थ्य प्रबंधन योजना के अंतर्गत पूंजी निवेश सब्सिडी योजना (सीआईएसएस) शुरू की गई है, जिसमें फल और सब्जी बाजार अपशिष्ट और कृषि अपशिष्ट से खाद उत्पादन के लिए यंत्रीकृत इकाइयों की स्थापना हेतु अधिकतम 190 लाख रुपये प्रति इकाई, राज्य सरकार तथा सरकारी एजेंसियों द्वारा 100 प्रतिशत सहायता प्रदान की जाती है। इसके अलावा, लोगों (व्यक्तिगत रूप से) और निजी एजेंसियों को पूंजी निवेश के रूप में 63 लाख रुपये प्रति इकाई लागत की 33 प्रतिशत राशि की सहायता की जाती है।
राष्ट्रीय तिलहन और ऑयल पाम मिशन (एनएमओओपी) तिलहन के उत्पादन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से जैव उर्वरक, राइजोबियम के संवर्धित भंडार, फॉस्फेट में घुलनशील बैक्टीरिया (पीएसबी) केंचुआ खाद आदि जैसे विभिन्न घटकों के लिए 300 रुपये प्रति हेक्टेयर के समायोजन हेतु 50 प्रतिशत की सब्सिडी प्रदान करता है।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (एनएफएसएम) जैव उर्वरक (राइजोबियम/पीएसबी) को बढ़ावा देने हेतु 300 रुपये प्रति हेक्टेयर क्षेत्र की लागत पर 50 प्रतिशत की सब्सिडी प्रदान करता है।
जैविक उत्पाद का प्रमाणीकरण उपभोक्ता को विश्वास दिलाने में जैविक उत्पाद का एक महत्वपूर्ण तत्व है। पीकेवीवाई और एमओवीसीडी-एनईआर दोनों क्रमशः सहभागिता गारंटी प्रणाली (पीजीएस) तथा जैविक उत्पादन के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम (एनपीओपी) के तहत प्रमाणीकरण को प्रोत्साहन देते हैं। पीजीएस और एनपीओपी के मानकों पर आधारित भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) जैविक भारत/पीजीएस ऑर्गेनिक इंडिया के प्रतीक-चिह्नों को मुद्रित किया जाता है। पीजीएस-ग्रीन का प्रमाणन रसायनमुक्त उत्पाद को ‘जैविक’ में संक्रमण करते समय, जिसमें लगभग तीन वर्ष का समय लगता है, दिया जाता है।
कृषि के प्रति संधारणीय उपागम
प्रोसिडिंग्स ऑफ द नेशनल अकेडमी ऑफ साइंसेज (PNAS), यूएसए में इंटिग्रेटेड फार्मिंग विद इंटरक्रॉपिंग इन्क्रिसेस फूड प्रोडक्शन वाइल रिड्यूसिंग एन्वायरमेंटल फुटप्रिंट नामक शीर्षक से प्रकाशित एक अध्ययन, जो दर्शाता है कि छोटे किसान भी अधिक उत्पादन तथा पर्यावरणीय प्रभावों को कम कर सकते हैं, में भारत में लागू करने योग्य निम्नलिखित चार पद्धतियों का सुझाव दिया गया हैः
क्रमिक (रिले) रोपण, एक ही समय पर, एक ही भूखंड में क्रमिक रूप से, चावल (या गेहूं), फूलगोभी, प्याज और ग्रीष्मकालीन लौकी (अथवा आलू, प्याज, भिंडी तथा मक्का) जैसी विभिन्न फसलों के रोपण को शामिल करती है। इस प्रकार, किसान को केवल एक ही फसल पर निर्भर नहीं रहना पड़ता और इससे श्रम का बेहतर वितरण तथा कीटों का प्रसार भी कम होता है। हालांकि, इस पद्धति में क्रमिक रोपण का यंत्रीकरण कठिन हो सकता है तथा प्रबंधन की आवश्यकता भी अधिक होती है।
पट्टी आवर्तन (किसी खेत में पट्टियों में फसलों का चक्रण जिसमें अपरदनरोधी फसलों की एकांतरण द्वारा खेती की जाती है) खेत में बारी-बारी से या प्रमुख फसलों के अलावा घास जैसे अन्य पौधों के रोपण हेतु पट्टियों का प्रयोग करने की सुविधा प्रदान करता है। भूमि को अलग-अलग पट्टियों में विभाजित कर दिया जाता है और फसलों के बीच पट्टियों में घास उगाई जाती है। अमेरिका में प्रचलित इस कृषि पद्धति के लिए बड़े-बड़े खेतों की जरूरत होती है।
मृदा का पलवारन (सॉयल मल्चिंग) पूरी तरह से अनावृत मृदा को घास-फूस और पत्तियों, यहां तक कि तब भी जब भूमि उपयोग में हो, से आच्छादित करके किया जाता है।
बिना जुताई की कृषि फसल की वार्षिक उपज में वृद्धि और मृदा अपरदन को कम करती है, लेकिन मृदा में नमी को बनाए रखती है। इस पद्धति में मृदा प्रभावित नहीं होती है, या थोड़ी जुताई की जाती है।
भारत में आधुनिक कृषि पद्धतियां
ऊर्ध्वाधर कृषिः यह उर्ध्वाधर सतहों पर पौधों को उगाने की एक प्रक्रिया है, जिसके लिए अधिक स्थान की आवश्कयता नहीं होती, और इन्हें घरों, इमारतों आदि में उगाया जा सकता है। यह पद्धति नियंत्रित पर्यावरणीय कृषि (सीईए) तकनीक द्वारा आभ्यंतरिक कृषि तकनीकों का उपयोग करती है। काफी हद तक इसकी तुलना पौधाघरों (ग्रीनहाउस) से की जा सकती है। भारत में, ऊर्ध्वाधर कृषि मुख्यतः पॉलीहाउस आधारित कृषि (कृषि का सुरक्षात्मक तरीका, जो भारत में अधिकाधिक उत्पादकता तथा फलों और सब्जियों की उपज प्रदान करता है) की जाती है।
किसान ऊर्ध्वाधर कृषि की प्रक्रिया से पूरी तरह परिचित नहीं हैं। इसलिए, अधिकतर निवेशक वाणिज्यिक स्तर पर इसका प्रयोग करने के अनिच्छुक होते हैं। हालांकि, कुछ सफल पौधाघर किसान भी हैं, जो टमाटर, शिमला मिर्च और ककड़ी/खीरा उगाने के लिए अधःस्तर आधारित जल संवर्धन (हाइड्रोपोनिक्स—पौधों को जल में उगाना तथा उनकी वृद्धि के लिए जल में आवश्यक पोषक पदार्थ मिलाना) संबंधी प्रयास कर रहे हैं। मृदा आधारित पौधाघर कृषि और मृदा रहित कृषि की सफलता के मार्ग में अनुभव, ज्ञान तथा कौशल का अभाव बड़ी बाधा है।
परंतु यह स्थिति तेजी से परिवर्तित हो रही है। भारत सरकार की पहल के अंतर्गत, विश्वविद्यालयों में शहरी और ग्रामीण युवाओं के लिए डिग्री स्तर पर कौशल आधारित कार्यक्रम शुरू किए गए हैं। मुंबई में स्थित रामनारायण रुइया कॉलेज पौधाघर (ग्रीनहाउस) प्रबंधन में डिग्री स्तर पर पाठ्यक्रम प्रदान करता है।
जैसा कि ऊर्ध्वाधर कृषि मृदा रहित होती है, यह जल संवर्धन, वायव संवर्धन (एयरोपोनिक्स) और एक्वापोनिक्स जैसी कम मृदा वाली तकनीकों को शामिल करती है।
जल संवर्धनः जल संवर्धन में, पौधों की जड़ें या तो पानी में अथवा रोगाणुरहित और स्थिर वस्तु में निमग्न रहती हैं। उन्हें पोषक लवण, पानी में घोलकर दिए जाते हैं। यह प्रौद्योगिकी उपज के समान स्वाद, आकार और रंग को सुनिश्चित करती है तथा 90 प्रतिशत कम पानी का उपयोग करती है। इससे प्राप्त उपज मात्रा में अधिक, पूर्वानुमेय और मृदाजनित रोगों से मुक्त होती है।
वायव संवर्धनः वायव संवर्धन (एयरोपोनिक्स) में पौधों की जड़ें हवा में लटकी रहती हैं, और फॉगर (कोहरे के रूप में पौधों को आर्द्रता और कीटनाशक प्रदान करने वाला उपकरण) के माध्यम से नमी तथा पोषण प्राप्त करती हैं। यह पद्धति पौधों में तीव्र वृद्धि तथा अधिक पैदावार होने के लिए जड़ों को सबसे अधिक ऑक्सीजन प्रदान करती है।
एक्वापोनिक्सः एक्वापोनिक्स में पोषक लवणों को जलीय कृषि, एक छोटे-से स्थान में अधिकाधिक मत्स्यपालन की पद्धति, में प्रयुक्त जल से बदला (या प्राप्त किया) जाता है। मछलियों के मल-मूत्र में पाए जाने वाले अमोनिया को बैक्टीरिया के उपभेदों द्वारा नाइट्राइट्स और नाइट्रेट्स, जो भिन्न स्तरों पर मछलियों के लिए हानिकारक होते हैं, में परिवर्तित किया जाता है। पौधों की जड़ें नाईट्रेट्स को ग्रहण करती हैं जैसा कि यह पादपों के लिए एक प्रमुख पोषक पदार्थ है। इस प्रकार, जल जलीय कृषि के लिए स्वच्छ हो जाता है।
इसका परिणाम जलीय कृषि और बागवानी के मध्य एक पूर्ण सहयोगी संबंध है।
अधिकतर, ऊर्ध्वाधर कृषि में ऊर्ध्वाधर अदरक कृषि, कर्कट की खेती, लेट्यूस (सलाद पत्ता) आदि की खेती करना शामिल है।
भारतीय कृषि के सम्मुख चुनौतियां
पिछले दो दशकों से बेहतर फसल उत्पादन करने के बावजूद, वर्तमान में भारतीय कृषि संवहनीयता, पोषण, कृषि की नई प्रौद्योगिकियों को अपनाने, और कृषि पर निर्भर आबादी का आय स्तर निम्न होने से संबंधित समस्याओं से जूझ रही है। भारतीय कृषि के सम्मुख प्रमुख चुनौतियां निम्नलिखित हैं:
जलवायु परिवर्तनः बढ़ते हुए तापमान और मौसम की चरम घटनाओं में होती वृद्धि ने जलवायु परिवर्तन को भारतीय कृषि की उत्पादकता में नुकसान के लिए एक विशाल संकट बना दिया है। जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप पौधों की जैविक वृद्धि बाधित होने के साथ-साथ कीटों और पादप रोगों के बढ़ते हमलों से फसलें बर्बाद हो रही हैं।
कृषि अपशिष्ट प्रबंधनः उत्तरी राज्य कृषि अपशिष्ट या फसलों के अवशेष को खुले स्थानों में जलाकर वायु प्रदूषण के स्तर में वृद्धि को और अधिक बढ़ा रहे हैं।
खंडित भू-जोतः वर्षों से जोतों का औसत आकार उल्लेखनीय ढंग से कम होता जा रहा है। 2010-11 की कृषि गणना के अनुसार, 1.15 हेक्टेयर के एक औसत जोत आकार में, परिचालित जोतों की कुल संख्या 138.35 मिलियन थी। सभी जोतों में से, 85 प्रतिशत 2 हेक्टेयर से भी कम के सीमांत और छोटे खेत के वर्गों में हैं।
प्रच्छन्न बेरोजगारीः यद्यपि कृषि क्षेत्र देश में कुल श्रम बल के 49 प्रतिशत को रोजगार प्रदान करता है, तथापि कुल सकल वर्धित मूल्य (जीवीए) में इसका योगदान केवल 17 प्रतिशत है। यह दर्शाता है कि कृषि पर श्रम बल की अत्यधिक निर्भरता के परिणामस्वरूप इस क्षेत्र और कम श्रम उत्पादकता में यथेष्ट छिपी हुई या प्रच्छन्न बेरोजगारी है।
खाद्य स्फीति और खाद्य पदार्थों के मूल्यों में अस्थिरताः वर्षा पर कृषि की अत्यधिक निर्भरता के कारण, सूखा, बाढ़ और बेमौसमी वर्षा जैसी प्रतिकूल जलवायविक स्थितियां समस्त आपूर्ति तथा आपूर्ति शृंखला दोनों पर विघटनकारी प्रभाव डालती हैं, जो खाद्य पदार्थों के महंगाई के मार्ग में अत्यधिक अस्थिरता प्रस्तुत करती है। खाद्य आपूर्ति शृंखला में अपर्याप्तता देश में खाद्य स्फीति प्रभाव डालती है।
निष्कर्ष, भावी कार्ययोजना एवं रणनीति
भारत में जनसंख्या के एक बड़े हिस्से के लिए आजीविका के मुख्य स्रोत के रूप में कृषि के महत्व को कम नहीं आंका जा सकता। भविष्य में, परिमाण, गुणवत्ता और पोषक खाद्य पदार्थों के लिए मांग में वृद्धि होगी, जिससे भूमि पर अधिक खेती की जाएगी। हालांकि, उत्पादकता में वृद्धि, मूल्य-प्रभावी तकनीकों के प्रयोग, पर्यावरण की रक्षा और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के संबंध में अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। सरकार तथा अन्य संगठनों को भारत में कृषि की सभी प्रमुख चुनौतियों का समाधान करने के लिए अपने प्रयासों में तेजी लानी चाहिए। कृषि को जलवायु के प्रति अधिक प्रभाव शून्य और पर्यावरणिक रूप से संवहनीय बनाने के लिए, द्वितीय हरित क्रांति की आवश्यकता है जो कृषि-जल-ऊर्जा समन्वय पर केंद्रित हो। पर्यावरण-अनुकूल, रोग प्रतिरोधी, जलवायु के प्रति लचीली, अधिक पोषक तथा विविधतापूर्ण फसलों की किस्मों को विकसित करने में जैव प्रौद्योगिकी को लागू करना और प्रजनन महत्वपूर्ण होगा। डिजिटल प्रौद्योगिकी का प्रयोग तथा विस्तारित सेवाएं किसानों को जानकारियों को साझा करने और जागरूकता फैलाने की सुविधा देगी। फसल कटाई के बाद बेहतर नुकसान प्रबंधन को अपनाकर और किसान उत्पादक संगठनों (FPOs) के गठन के माध्यम से उन्नत सहकारी क्रियाकलापों में खाद्य पदार्थों की कीमतों में अस्थिरता और किसानों की आय को समाविष्ट किया जा सकता है।
कृषि क्षेत्र में कई स्टार्ट-अप्स, जिनका संचालन उच्च शिक्षित युवाओं द्वारा किया जाता है, इस क्षेत्र में धन निवेश और प्रयास करने की अधिक संभाव्यता को समझ रहे हैं। अगले दशक तक प्रौद्योगिकी के संचित प्रयास कृषि और भारतीय कृषि पद्धतियों को रूपांतरित कर देंगे।
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