5 नवंबर, 2024 को भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई), डी.वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय, बी.वी. नागरत्ना, सुधांशु धूलिया, जे.बी. पारदीवाला, मनोज मिश्रा, राजेश बिंदल, सतीश चंद्र शर्मा तथा ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह से मिलकर बनी नौ न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने अपना निर्णय दिया कि संविधान के अनुच्छेद 39(ख) के अंतर्गत राज्य के नीति निदेशक तत्वों (डीपीएसपी) के अनुसार, क्या ‘‘निजी संपत्तियों’’ को ‘‘समुदाय के भौतिक संसाधन’’ के एक भाग के रूप में माना जा सकता है।
तत्कालीन सीजेआई डी.वाई. चंद्रचूड़ द्वारा 8:1 के अनुपात में दिए गए बहुमत के निर्णय में, न्यायालय ने विनिश्चित किया कि संविधान के अनुच्छेद 39(ख) के अंतर्गत सभी “निजी संपत्तियों” को “समुदाय के भौतिक संसाधनों” का हिस्सा नहीं माना जा सकता है। न्यायालय ने सर्वसम्मति से यह भी पुष्टि की कि केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) मामले में बरकरार रखा गया अनुच्छेद 31ग, आज भी लागू है।
संविधान (पच्चीसवां संशोधन) अधिनियम, 1971 द्वारा अंतःस्थापित किया गया अनुच्छेद 31ग, यह सुनिश्चित करता है कि संविधान के भाग 4 में अधिकथित निदेशक तत्वों को प्रभावी करने के प्रयोजन से बनाई गई विधियों को शून्य नहीं समझा जाएगा, भले ही वे अनुच्छेद 14 या 19 के अधीन प्रदत्त अधिकारों में से किसी से असंगत हैं या उसे न्यून करती हैं। ऐसी कोई विधि, जिसमें यह घोषणा है कि वह ऐसी नीति को प्रभावी करने के लिए है, किसी न्यायालय में इस आधार पर प्रश्नगत नहीं की जाएगी कि वह ऐसी नीति को प्रभावी नहीं करती है।
परंतु जहां ऐसी विधि किसी राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाई जाती है, वहां इस अनुच्छेद के उपबंध उस विधि पर तब तक लागू नहीं होंगे जब तक ऐसी विधि को, जो राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखी गई है, उसकी अनुमति प्राप्त नहीं हो गई है।
अनुच्छेद 39(ख) में उल्लिखित है कि राज्य अपनी नीति को इस तरह निदेशित करेगा कि समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटा हो जिससे सार्वजनिक हित का सर्वोत्तम रूप से साधन हो।
पृष्ठभूमि
महाराष्ट्र गृहनिर्माण व क्षेत्रविकास अधिनियम, 1976 (म्हाडा) का अध्याय VIII बृहन् मुंबई (पूर्व में ग्रेटर बॉम्बे) में जीर्ण-शीर्ण भवनों की मरम्मत और पुनर्निर्माण से संबंधित है। म्हाडा (द्वितीय संशोधन) अधिनियम, 1986 ने अध्याय VIII-क पेश किया, जो ‘‘अधिभोगियों की सहकारी समितियों के लिए अधिग्रहित संपत्तियों के अधिग्रहण’’ पर केंद्रित है। यह प्रावधान विशेष रूप से श्रेणी ‘ए’ के भवनों पर लागू होता है, जो बृहन् मुंबई में 1 सितंबर, 1940 से पहले निर्मित अधिग्रहित संपत्तियां हैं।
म्हाडा का अध्याय VIII-क कुछ संपत्तियों के अधिग्रहण से संबंधित है, जिसके अनुसार राज्य के लिए संबंधित संपत्ति के मासिक किराये के सौ गुना के समतुल्य दर पर क्षतिपूर्ति देना आवश्यक है।
म्हाडा की धारा 1क, जिसे 1986 में अंतःस्थापित किया गया था, में उल्लिखित है कि म्हाडा का उद्देश्य संविधान के अनुच्छेद 39(ख) को क्रियान्वित करना है। अध्याय VIII-क ने मुंबई बिल्डिंग रिपेयर एंड रिकंस्ट्रक्शन बोर्ड (एमबीआरआरबी) को जीर्णोद्धार के लिए कुछ “अधिग्रहित संपत्तियों” को अधिग्रहित करने का अधिकार दिया, बशर्ते कि 70 प्रतिशत निवासी इससे सहमत हों। यह मुद्दा, जो पहली बार 1992 में शुरू हुआ, म्हाडा के अध्याय VIII-क की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने से उत्पन्न हुआ।
प्रॉपर्टी ओनर्स एसोसिएशन (अपीलकर्ता) ने बॉम्बे हाई कोर्ट में याचिका दायर की, जिसमें तर्क दिया गया कि अध्याय VIII-क के प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14 और 19 का उल्लंघन करते हैं। उन्होंने दावा किया कि प्रावधान मनमाने थे, अपर्याप्त क्षतिपूर्ति के लिए अन्यायपूर्ण तरीके से संपत्ति स्वामियों को उनके अधिकारों से वंचित किया गया और भवनों के वर्गीकरण का प्रयोजनों से कोई तर्कसंगत संबंध नहीं था। उच्च न्यायालय ने रिट याचिकाओं को खारिज कर दिया और अध्याय VIII-क की संवैधानिकता को बनाए रखा। अपीलकर्ता उच्च न्यायालय के निर्णय से असंतुष्ट थे और उन्होंने उच्चतम न्यायालय के समक्ष विशेष अनुमति याचिका दायर की।
संदर्भ आदेश
न्यायालय ने 1986 में अंतःस्थापित म्हाडा के अध्याय VIII-क को चुनौती देने वाली मुंबई के प्रॉपर्टी ओनर्स एसोसिएशन की याचिकाओं पर सुनवाई की। यह प्रावधान राज्य को मुंबई के पुराने जीर्ण-शीर्ण भवनों, जिन्हें “अधिग्रहित संपत्तियां” कहा जाता है, को अधिभोगियों की सहकारी समितियों के लाभ के लिए अधिग्रहित करने की अनुमति देता है। संशोधन में इसके बाद यह घोषणा भी शामिल थी कि अधिनियम का प्रयोजन संविधान के अनुच्छेद 39(ख) में उल्लिखित राज्य के नीति निदेशक तत्वों का क्रियान्वयन करना है।
राज्य ने तर्क दिया कि ‘‘आवास स्टॉक’’ समाज का एक भौतिक संसाधन है और जीर्ण-शीर्ण भवनों का पुनर्निर्माण आम लोगों के हित में है, जैसा कि पुराने भवन असुरक्षित हैं। म्हाडा ने इसके बाद तर्क दिया कि भवन स्वामियों ने 1 सितंबर, 1940 से किराया बढ़ाने पर लगी रोक के कारण मरम्मत करने से इनकार कर दिया था, जिसके परिणामस्वरूप किराये से बहुत कम आय हुई जो कि उनके द्वारा भुगतान किए जाने वाले संपत्ति करों की पूर्ति करने के लिए अपर्याप्त थी।
हालांकि, संपत्ति स्वामियों ने यह तर्क देते हुए राज्य की कार्यवाही का विरोध किया कि अनुच्छेद 39(ख) की व्याख्या निजी स्वामित्व वाली संपत्ति को शामिल करने के लिए नहीं की जा सकती। उन्होंने अत्यधिक कम मानक किराए निर्धारित करने के लिए महाराष्ट्र भाड़े नियंत्रण अधिनियम, 1999 (महाराष्ट्र रेंट कंट्रोल ऐक्ट, 1999) को भी चुनौती दी। इसकी अनुक्रिया में, म्हाडा ने तर्क दिया कि अनुच्छेद 39(ख) की व्यापक रूप से व्याख्या की जानी चाहिए ताकि इसमें निजी संपत्ति को भी शामिल किया जा सके।
कर्नाटक राज्य बनाम रंगनाथ रेड्डी (1977) मामले में, जिसमें अनुबंधित गाड़ियों के राष्ट्रीयकरण के संदर्भ में अनुच्छेद 39(ख) की प्रयोज्यता की जांच की गई थी, सात न्यायाधीशों की पीठ के निर्णय की व्याख्या के कारण कानून में अनिश्चितता की स्थिति उत्पन्न हुई।
बहुमत की राय में अनुच्छेद 39(ख) के अंतर्गत निजी संपत्ति को शामिल करने का समर्थन नहीं किया गया। हालांकि, न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) वी.आर. कृष्ण अय्यर द्वारा व्यक्त अल्पमत की राय इसके विपरीत थी। आगे चलकर अल्पमत की यह राय संजीव कोक मैन्युफैक्चरिंग कंपनी बनाम भारत कोकिंग कोल लिमिटेड मामले (1982) में पांच न्यायाधीशों की पीठ के लिए आधार बनी, जहां कोक अवन संयंत्रों के राष्ट्रीयकरण के संदर्भ में अनुच्छेद 39(ख) के मुद्दे पर विचार किया गया था। उस मामले में, निजी संपत्ति को समुदाय के भौतिक संसाधनों का हिस्सा माना गया था। बाद में अल्पमत की इस राय का संदर्भ मफतलाल इंडस्ट्रीज लिमिटेड बनाम भारत संघ (1996) मामले में दिया गया।
कुछ महत्वपूर्ण बिंदु और अंतिम निर्णय
न्यायमूर्ति अय्यर और न्यायमूर्ति रेड्डी के निर्णय पर, 8:1 बहुमत वाले निर्णय में कहा गया कि संजीव कोक मामले में न्यायमूर्ति अय्यर और न्यायमूर्ति चिन्नप्पा रेड्डी द्वारा व्यक्त की गई राय त्रुटिपूर्ण थी, जैसा कि यह इस बात का अंतर स्पष्ट करने में विफल रही कि भौतिक संसाधन समुदाय का है, न कि राज्य का।
बहुमत की राय में उल्लेख किया गया कि न्यायमूर्ति अय्यर और न्यायमूर्ति रेड्डी की व्याख्या ‘‘एक विशेष आर्थिक विचारधारा का समर्थन करने के बराबर है’’। इसमें यह भी कहा गया कि अनुच्छेद 39(ख) में सभी निजी संसाधनों के वितरण को शामिल करने की घोषणा प्रभावी रूप से अर्थव्यवस्था के लिए एक विशिष्ट आर्थिक विचारधारा और संरचना का समर्थन करती है।
बहुमत के निर्णय में कहा गया कि अनुच्छेद 39(ख) की व्याख्या कर “समुदाय के भौतिक संसाधन” शब्द के अंतर्गत सभी निजी संपत्तियों को शामिल करना वाक्यांश के तीन मानदंडों में से केवल एक को पूरा करता है—कि संबंधित सामान एक “संसाधन” होना चाहिए। हालांकि, यह अन्य मानदंडों की अनदेखी करता है, अर्थात, संसाधन “‘भौतिक” होना चाहिए और “समुदाय” से संबंधित होना चाहिए। पीठ ने बल देकर कहा, “‘भौतिक” और ‘समुदाय’ शब्दों का प्रयोग अर्थहीन अतिशयोक्ति नहीं है... ‘समुदाय के’ शब्दों को वैयक्तिक से अलग समझा जाना चाहिए”।
न्यायालय ने कहा कि यदि अनुच्छेद 39(ख) में किसी व्यक्ति के स्वामित्व वाले सभी संसाधनों को शामिल किया जाना था, तो इसमें वर्णित होता कि संसाधनों के स्वामित्व और नियंत्रण को समुदाय के लिए भौतिक संसाधनों के वितरण पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, सामान्य कल्याण हेतु सर्वोत्तम रूप में “विवादास्पद” किया जाना चाहिए।
न्यायालय ने आगे स्पष्ट किया कि यदि प्रावधान का उद्देश्य निजी स्वामित्व वाले संसाधनों को बाहर रखना था, तो इसमें “समुदाय के” के बजाय “राज्य के संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण” घोषित किया जाना चाहिए था। “राज्य के” के बजाय “समुदाय के” शब्दों का प्रयोग कुछ निजी स्वामित्व वाले संसाधनों को शामिल करने के विशिष्ट उद्देश्य को इंगित करता है। अनिवार्य रूप से, प्रावधान का पाठ संकेत देता है कि सभी निजी स्वामित्व वाले संसाधन इसके दायरे में नहीं आते हैं; यद्यपि, निजी स्वामित्व वाले संसाधनों को एक वर्ग के रूप में बाहर नहीं रखा गया है और कुछ को अभी भी शामिल किया जा सकता है।
न्यायालय ने कहा कि रंगनाथ रेड्डी और संजीव कोक के निर्णय “उस हद तक गलत हैं जहां वे मानते हैं कि किसी व्यक्ति के सभी संसाधन समुदाय का हिस्सा हैं और इस प्रकार सभी निजी संपत्तियां ‘समुदाय के भौतिक संसाधन’ वाक्यांश के अंतर्गत आती हैं।’’
भारत के आर्थिक लोकतंत्र पर बहुमत की राय ने बी.आर. अंबेडकर के दृष्टिकोण का संदर्भ दिया कि “यदि संविधान आर्थिक और सामाजिक संगठन का एक विशेष रूप निश्चित करता है, तो यह लोगों से उस सामाजिक संगठन का निर्णय करने की स्वतंत्रता छीनने के समान होगा जिसमें वे रहना चाहते हैं”। इस पर विचार करते हुए, निर्णय ने न्यायालय की भूमिका को “आर्थिक नीति निर्धारित करने के लिए नहीं, बल्कि ‘आर्थिक लोकतंत्र’ की नींव रखने के लिए संविधान निर्माताओं के आशय को सरल बनाने हेतु” के रूप में परिभाषित किया।
बहुमत की राय ने भारत के आर्थिक विकास के प्रक्षेपवक्र (यह किसी विशेष इकाई, जैसे कि कंपनी, उद्योग या देश, के आर्थिक विकास, या विस्तार के मार्ग को संदर्भित करता है) का उल्लेख किया और 1950 एवं 1960 के दशकों की मिश्रित अर्थव्यवस्था, जिसमें भारी उद्योग और आयात प्रतिस्थापन शामिल थे, पर प्रकाश डाला। इसने 1960 और 1990 के दशकों के उत्तरार्ध में ‘‘समाजवादी सुधारों’’ की ओर परिवर्तन, इसके बाद 1990 के दशक के ‘‘बाजार-आधारित सुधार’’ या ‘‘उदारीकरण के वर्षों’’, का भी उल्लेख किया।
न्यायालय ने कहा कि यह निरंतर प्रगति न्यायमूर्ति अय्यर के ‘‘कठोर’’ आर्थिक सिद्धांत को स्थापित करने में ‘‘सैद्धांतिक त्रुटि’’ प्रकट करता है। इसने इस बात पर जोर दिया कि कैसे ‘‘संविधान और संविधान के संरक्षक, निर्वाचक मंडल, नियमित रूप से एक आर्थिक हठधर्मिता दिखाते हैं कि वे सत्य के एकमात्र केंद्र हैं’’।
न्यायालय ने टिप्पणी की कि ‘‘एक जीवंत, बहुदलीय आर्थिक लोकतंत्र में भागीदार के रूप में, भारत के लोगों ने ऐसी सरकारों को सत्ता में लाने के लिए मतदान किया है, जिन्होंने देश की उभरती विकास रणनीतियों एवं चुनौतियों के आधार पर विभिन्न आर्थिक और सामाजिक नीतियों को अपनाया है। आर्थिक लोकतंत्र स्थापित करने और निर्वाचित सरकार के विवेक पर भरोसा करने हेतु हमारे संविधान निर्माताओं की दूरदर्शिता एवं परिकल्पना भारत की अर्थव्यवस्था की उच्च विकास दर का आधार रही है, जिसने इसे विश्व की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक बना दिया है’’। न्यायालय ने कहा कि ‘‘एकल आर्थिक सिद्धांत को अधिरोपित कर इस संवैधानिक परिकल्पना को समाप्त करना, जो राज्य द्वारा निजी संपत्ति के अधिग्रहण को अंतिम लक्ष्य मानती है, हमारे संवैधानिक ढांचे की मूल संरचना एवं सिद्धांतों को कमजोर करेगा’’।
न्यायमूर्ति नागरत्ना की रायः एक पृथक निर्णय में यद्यपि न्यायमूर्ति नागरत्ना ने समुदाय के भौतिक संसाधन की परिभाषा पर बहुमत के राय से सहमति जताई। उन्होंने संविधान की ‘लचीली व्याख्या’ की आवश्यकता पर बल दिया, और इसे एक “मूलभूत पाठ” के रूप में मान्यता दी जिसे बदलते समय के अनुसार परिवर्तित होना चाहिए। उन्होंने कहा, “न तो राज्य द्वारा अपनाई गई समाजवादी नीति को सिद्धांत बनाया जा सकता है, और न ही अहस्तक्षेपी अर्थव्यवस्थाओं जैसे सिद्धांतों को उस समय उपेक्षित किया जा सकता है जब उन्हें देश में अर्थव्यवस्था के विकास एवं भारत के लोगों के लाभ के लिए राज्य द्वारा पुनर्जीवित किया गया हो’’।
तथापि न्यायमूर्ति नागरत्ना, न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर और चिन्नप्पा रेड्डी की व्याख्याओं के बारे में बहुमत के विचार से असहमत थीं। उन्होंने कहा कि, ‘‘उन निर्णयों में न्यायमूर्तियों के अभिमतों की वर्तमान समय में कोई आलोचना करना आवश्यक नहीं है। न तो यह न्यायोचित है और न ही अपेक्षित।
न्यायमूर्ति धूलिया की रायः अपने असहमतिपूर्ण निर्णय में न्यायमूर्ति धूलिया ने कहा कि, न्यायमूर्ति अय्यर एवं न्यायमूर्ति रेड्डी द्वारा दिए गए “समुदाय के भौतिक संसाधनों” के “व्यापक और समावेशी” अर्थ ने “हमारे लिए अच्छा काम किया है और इसने अपनी कोई प्रासंगिकता या न्यायशास्त्रीय मूल्य नहीं खोया है, न ही इसने उन संदर्भों को खोया है जो इन मूल्यों की सराहना करते हैं।”
निर्णय के निहितार्थ
यह पुष्टि करते हुए कि सभी निजी संपत्तियां सामुदायिक संसाधन के रूप में प्रयोज्य नहीं हैं, निर्णय व्यक्तिगत संपत्ति के अधिकारों को सुदृढ़ करता है, संपत्ति के स्वामियों को राज्य द्वारा मनमाने रूप से उनकी संपत्तियों के अधिग्रहण से बचाता है। निर्णय यह सुनिश्चित करता है कि भू-अधिग्रहण एवं सार्वजनिक परियोजनाओं जैसी राज्य की कार्रवाइयों में लोगों की जरूरतें सुस्पष्ट होनी चाहिए, जिससे विशेष अधिकार की शक्तियों के अविवेकी प्रयोग को रोका जा सके। यह इस बात पर बल देता है कि ऐसे हस्तक्षेप सीधे सार्वजनिक कल्याण से जुड़ी विशिष्ट परिस्थितियों पर आधारित होने चाहिए।
यह निर्णय यह आकलन करने के लिए एक अधिक संरचित उपागम भी प्रस्तुत करता है कि राज्य निजी संपत्ति के मामलों में कब हस्तक्षेप कर सकता है। यह मामला-दर-मामला विश्लेषण संपत्ति स्वामियों को अधिक विधिक निश्चितता प्रदान करता है, विशेष रूप से अचल संपत्तियों और आधारिक अवसंरचना जैसे क्षेत्रों में, जहां भूमि अधिग्रहण सामान्य है। यह सुनिश्चित करता है कि राज्य की कार्रवाइयां न्यायोचित, पारदर्शी एवं आनुपातिक हों, जिससे सत्ता के संभावित दुरुपयोग को कम किया जा सके।
इसके अलावा, यह निर्णय संसाधनों के पुनर्वितरण के उद्देश्य से भूमि सुधारों को प्रभावित करता है। ऐसे सुधारों की आवश्यकता का समर्थन करते हुए, यह इस बात पर बल देता है कि उन्हें संपत्ति के अधिकारों को संवैधानिक सुरक्षा के साथ संरेखित करना चाहिए।
निष्कर्ष
यह निर्णय, जो स्पष्ट करता है कि सभी निजी संपत्तियां सामुदायिक संसाधन नहीं होती है, संपत्ति के अधिकारों और निजी स्वामित्व में राज्य के हस्तक्षेप के लिए दूरगामी परिणाम प्रस्तुत करता है। मामला-दर-मामला दृष्टिकोण अपनाकर, न्यायालय ने निजी संपत्ति के अधिकारों की रक्षा के महत्व की पुष्टि की है, साथ ही यह भी सुनिश्चित किया है कि जब लोगों की जरूरतें वास्तविक हो तो राज्य हस्तक्षेप कर सकता है।
यह निर्णय व्यक्तिगत अधिकारों की सुरक्षा की दिशा में एक सतर्क लेकिन आवश्यक कदम है, साथ ही इसमें जनता की व्यापक आवश्यकताओं के साथ संतुलन भी बनाया गया है। ऐसा करते हुए, यह राज्य को जिम्मेदारी से और आनुपातिक रूप से कार्य करने के लिए एक ढांचा प्रदान करता है, यह सुनिश्चित करते हुए कि निजी संपत्ति का कोई भी अधिग्रहण लोगों के वैध प्रयोजन के लिए है और विधि के अधीन समुचित है।
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