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उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सहित सभी न्यायाधीशों ने अपनी संपत्ति सार्वजनिक की

1 अप्रैल, 2025 को आयोजित पूर्ण न्यायालय की बैठक में लिए गए एक ऐतिहासिक निर्णय के तहत, उच्चतम न्यायालय के सभी 33 न्यायाधीशों ने अपनी संपत्तियों को सार्वजनिक रूप से उच्चतम न्यायालय की आधिकारिक वेबसाइट पर प्रकाशित करने पर सहमति व्यक्त की। भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) संजीव खन्ना ने इस प्रस्ताव को कॉलेजियम के समक्ष प्रस्तुत किया, जिसमें उनके अलावा न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, सूर्यकांत, ए.एस. ओका और विक्रम नाथ शामिल थे। बाद में यह मामला 1 अप्रैल, 2025 को आयोजित पूर्ण न्यायालय की बैठक में प्रस्तुत किया गया। सभी न्यायाधीशों ने अपनी परिसंपत्तियों और देनदारियों को उच्चतम न्यायालय की वेबसाइट पर सार्वजनिक रूप से प्रकाशित करने पर सहमति व्यक्त की। उच्चतम न्यायालय द्वारा जारी एक प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, मुख्य न्यायाधीश सहित 33 में से 24  न्यायाधीश पहले ही अपनी संपत्ति घोषित कर चुके हैं, जिसका विवरण सर्वोच्च न्यायालय की वेबसाइट पर उपलब्ध है। हालांकि, अन्य 9 न्यायाधीशों ने अभी तक अपनी संपत्ति और देनदारियों की घोषणा मुख्य न्यायाधीश के समक्ष नहीं की है। उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 34 है, जिसमें से एक पद रिक्त है।

रिपोर्ट के अनुसार, मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने इस मुद्दे को प्रस्तावित किया और कुछ न्यायाधीशों द्वारा व्यक्त की गई चिंताओं का समाधान भी किया। हालांकि इस निर्णय की आधिकारिक अधिसूचना अभी लंबित है, लेकिन यह माना जा रहा है कि क्रियान्वयन से संबंधित विवरण और समय सीमा को अंतिम रूप दिया जा रहा है। न्यायाधीशों को संभवतः 31 जुलाई, 2025 तक चालू वित्त वर्ष के लिए अपना आयकर रिटर्न दाखिल करने के बाद अपनी संपत्तियों की सूची प्रस्तुत करनी होगी।

पृष्ठभूमि

यह निर्णय ऐसे समय में आया है जब 14 मार्च, 2025 को उच्च न्यायालय के न्यायाधीश यशवंत वर्मा के सरकारी आवास में आग लगने की घटना के बाद वहां से बेहिसाब नकदी पाए जाने के आरोपों के पश्चात न्यायाधीशों की ईमानदारी को लेकर चिंताएं बढ़ रही हैं। वर्तमान में इस मामले की एक आंतरिक न्यायिक जांच चल रही है। न्यायमूर्ति वर्मा, जिन्होंने अपने आवास पर मिली कथित नकदी से किसी भी प्रकार के संबंध से इनकार किया है, को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया गया है।

सितंबर 2024 की एक रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि 25 उच्च न्यायालयों के 749 न्यायाधीशों में से केवल 98 न्यायाधीशों—जो कुल संख्या का 13 प्रतिशत हैं—ने अपनी संपत्तियां सार्वजनिक रूप से घोषित की हैं। सूचना का अधिकार अधिनियम के माध्यम से प्राप्त आंकड़ों से मिली जानकारी के अनुसार इन 98 न्यायाधीशों में से 80 प्रतिशत से अधिक केवल तीन उच्च न्यायालयों से थे: केरल (37), पंजाब और हरियाणा (31) तथा दिल्ली (11)।

1997 न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्कथन

इससे पहले, उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए 1997 के न्यायिक जीवन के मूल्यों के पुनर्कथन (Restatement of Values of Judicial Life) के तहत मुख्य न्यायाधीश के समक्ष अपनी संपत्ति घोषित करना अनिवार्य था। 1997 में, उच्चतम न्यायालय की एक पूर्ण न्यायालय ने विनिश्चित किया कि न्यायाधीशों को अपनी संपत्ति मुख्य न्यायाधीश के समक्ष घोषित करनी चाहिए। उच्चतम न्यायालय ने विभिन्न मुद्दों पर संस्थागत जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए इस संहिता के माध्यम से एक रूपरेखा तैयार की। इसमें न्यायाधीशों के लिए अपनी संपत्ति और निवेश की जानकारी मुख्य न्यायाधीश को देने की आवश्यकता भी शामिल थी।


‘न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्कथन’ को अपनाकर न्यायिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के माध्यम से भविष्य के लिए प्रयासों की नींव रखी गई। इस सूची में 16 बिंदु हैं, जो व्यापक नहीं हैं, और इसमें उन मूल्यों को रेखांकित किया गया है जिन्हें न्यायाधीशों को पुष्ट करना चाहिए और उन गलतियों (चूक) का उल्लेख किया गया है जिनसे उन्हें बचना चाहिए। कुछ प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं:

  • न्यायाधीशों को ऐसे कार्यों से बचना चाहिए जो उच्च न्यायपालिका में लोगों के विश्वास को समाप्त करते हैं, क्योंकि “न्याय न केवल किया जाना चाहिए बल्कि यह दिखना भी चाहिए कि न्याय किया गया है”;
  • न्यायाधीशों को क्लबों, सोसायटियों और संस्थाओं में चुनाव नहीं लड़ना चाहिए/पद धारण नहीं करना चाहिए;
  • “बार के किन्हीं विशिष्ट सदस्यों” के साथ घनिष्ठ संबंध बनाने से बचना चाहिए;
  • न्यायाधीशों को “अपने पद की गरिमा के अनुरूप एक सीमा तक तटस्थ रहना चाहिए”;
  • न्यायाधीशों को “शेयरों, स्टॉक्स या इसी प्रकार के किसी निवेश में सट्टा नहीं लगाना चाहिए”; और
  • न्यायाधीशों को हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि वे “सार्वजनिक जांच के दायरे” में हैं और उन्हें अपने “उच्च पद के अनुपयुक्त” कार्यों से बचना चाहिए।

उच्चतम न्यायालय द्वारा अपनाए गए एक प्रस्ताव में कहा गया है कि, “प्रत्येक न्यायाधीश को अपना पदभार ग्रहण करने के नियत समय के भीतर; और पदेन न्यायाधीश के मामले में, इस संकल्प को अपनाए जाने के नियत समय के भीतर अपनी सभी संपत्तियों की घोषणा कर देनी चाहिए, जो अचल संपत्ति या निवेश के रूप में हो (चाहे वे स्वयं के नाम पर हों या उनके पति/पत्नी या किसी आश्रित व्यक्ति के नाम पर)।” इसके बाद, जब भी किसी महत्वपूर्ण प्रकार की किसी संपत्ति का अधिग्रहण किया जाए, तो उसे नियत समय के भीतर घोषित किया जाएगा।

पूर्ण न्यायालय ने उन न्यायाधीशों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए एक आंतरिक प्रक्रिया भी बनाई है जो ‘न्यायिक जीवन के सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत मानकों का पालन नहीं करते’, जिसमें संहिता में उल्लिखित मानक भी शामिल हैं। एक पांच सदस्यीय समिति ने अक्टूबर 1997 में यह प्रक्रिया विकसित की, और 1999 में इसे आधिकारिक रूप से अपनाया गया।

उल्लेखनीय रूप से, उन्होंने यह भी निर्णय लिया कि सभी न्यायाधीशों को अपनी अचल संपत्ति और निवेश सहित अन्य सभी परिसंपत्तियों की घोषणा ‘पद ग्रहण करने के नियत समय के भीतर’ मुख्य न्यायाधीश के समक्ष करनी होगी। संकल्प में उल्लिखित है कि ये घोषणाएं ‘गोपनीय रहेंगी।’ परिसंपत्ति से संबंधित ये घोषणाएं 2009 तक गोपनीय रहीं, उसके बाद इन्हें पहली बार सार्वजनिक किया गया।

‘न्यायिक जीवन के मूल्यों’ का आह्वान

यद्यपि आंतरिक प्रक्रिया और 'मूल्यों' का संकल्प परस्पर निकटता से जुड़े हुए हैं, तथापि इस संकल्प का आह्वान किए जाने का सबसे हालिया उदाहरण तब सामने आया, जब मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने मार्च 2025 में न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के खिलाफ आंतरिक जांच शुरू की। जांच प्रक्रिया और 'मूल्यों' का संकल्प संयुक्त रूप से न्यायाधीशों को महाभियोग का सहारा लिए बिना जवाबदेह बनाए रखने का एक तरीका प्रदान करते हैं, जिसकी सीमा बहुत बड़ी है।

जैसा कि उच्चतम न्यायालय ने 1995 में बॉम्बे उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ वित्तीय अनियमितता के आरोपों से जुड़े मामले में कहा था, “सिद्ध कदाचार और उच्च पद के अनुरूप न किए जाने वाले बुरे आचरण के बीच बहुत बड़ा अंतर है।” ‘बुरे आचरण’ की श्रेणी में आने वाले कार्यों को ‘मूल्यों’ के प्रस्ताव में सूचीबद्ध किया गया है।

इस संकल्प का प्रयोग 2014 में पुनः किया गया, जब मध्य प्रदेश की एक महिला अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश द्वारा उच्च न्यायालय के एक कार्यरत न्यायाधीश के विरुद्ध यौन उत्पीड़न की शिकायत दर्ज कराई गई, जिसके बाद उच्चतम न्यायालय ने आंतरिक जांच प्रक्रिया पर पुनर्विचार किया था। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह प्रक्रिया इस उद्देश्य से बनाई गई है 'ताकि उन न्यायाधीशों के विरुद्ध उपयुक्त सुधारात्मक कार्रवाई की जा सके, जो अपने कार्यों या विफलताओं के कारण न्यायिक जीवन के स्वीकृत मूल्यों का पालन नहीं करते', जिसमें संकल्प में निर्धारित आदर्श भी शामिल हैं।

2009 का संकल्प

अगस्त 2009 में, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश के.जी. बालाकृष्णन की अध्यक्षता में उच्चतम न्यायालय की पूर्ण न्यायालय ने न्यायाधीशों की परिसंपत्तियों और देनदारियों को उच्चतम न्यायालय की वेबसाइट पर प्रकाशित करने का निर्णय लिया था। यह निर्णय कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति शैलेंद्र कुमार द्वारा मुख्य न्यायाधीश बालाकृष्णन से सार्वजनिक रूप से असहमत होने के बाद लिया गया। न्यायमूर्ति शैलेंद्र कुमार ने इस विचार का विरोध किया था कि न्यायाधीशों को अपनी संपत्तियां सार्वजनिक रूप से घोषित नहीं करनी चाहिए।

एक अन्य पूर्ण न्यायालय ने न्यायाधीशों की संपत्ति को न्यायालय की वेबसाइट पर प्रकाशित करने का निर्णय लिया, लेकिन ‘पूर्णतया स्वैच्छिक आधार पर’। उस समय दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, न्यायमूर्ति रवींद्र भट ने फैसला सुनाया कि सूचना के अधिकार (आरटीआई) अधिनियम के तहत मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय एक ‘सार्वजनिक कार्यालय’ है। उन्होंने कहा कि सीजेआई के कार्यालय को सीजेआई और अन्य न्यायाधीशों की संपत्ति का खुलासा करना चाहिए। हालांकि, उच्चतम न्यायालय ने अपनी प्रशासनिक क्षमता के कारण इस फैसले से असहमति जताई।

2019 का निर्णय

नवंबर 2019 में, उच्चतम न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति संजीव खन्ना भी शामिल थे, ने निर्णय दिया कि मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय एक लोक प्राधिकरण है और उसे सूचना के अधिकार (आरटीआई) अधिनियम का पालन करना चाहिए। न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने कहा कि न्यायिक स्वतंत्रता और पारदर्शिता परस्पर जुड़े हुए हैं। न्यायमूर्ति एन.वी. रमणा, जो 2021 में भारत के मुख्य न्यायाधीश बने, ने न्यायमूर्ति खन्ना से सहमति जताते हुए सूचना के अधिकार, पारदर्शिता और न्यायिक स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता पर बल दिया। न्यायमूर्ति खन्ना ने मुख्य निर्णय लिखते हुए कहा कि न्यायाधीशों की संपत्ति की घोषणा करने से उनकी निजता का उल्लंघन नहीं होगा। एक भिन्न राय में, न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने कहा कि 'न्यायिक स्वतंत्रता एकांत कक्षों की गोपनीयता में सुरक्षित नहीं है।' ये निर्णय आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल द्वारा दायर मामले के जवाब में दिए गए, जिन्होंने 1997 के न्यायिक जीवन के मूल्यों के पुनर्कथन के तहत उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा घोषित संपत्तियों का विवरण मांगा था।

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