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विचाराधीन कैदी और निर्वाचन

भारत में, विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के कारण एक जटिल और जीवंत चुनावी प्रक्रिया है। हालांकि, एक पहलू जिसने व्यापक बहस को जन्म दिया है, वह है कारागार में बंद उम्मीदवारों की चुनाव लड़ने की अर्हता। अठारहवीं लोक सभा में अस्थायी पैरोल पर रिहा हुए अमृतपाल सिंह और शेख अब्दुल रशीद ने 5 जुलाई, 2024 को लोक सभा सदस्य के रूप में शपथ ली। अमृतपाल सिंह (31) राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) के तहत दर्ज मामलों में असम के डिब्रूगढ़ जिले के कारागार में बंद हैं और राशिद (56) विधिविरुद्ध क्रिया-कलाप (निवारण) अधिनियम (यूएपीए) के तहत दर्ज आतंकवाद के वित्तपोषण से संबंधित मामले में दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद है। अमूतपाल सिंह को असम से दिल्ली आने के लिए चार दिन की पैरोल मिली थी, जबकि राशिद को शपथ लेने के लिए दो घंटे की पैरोल मिली थी। परिणामस्वरूप, इस स्थिति में कई प्रश्न उत्पन्न होते हैं: क्या जेल में बंद व्यक्ति चुनाव लड़ सकता है? क्या वह संसद के कामकाज आदि में भाग ले सकता/सकती है?

आइए समझते हैं कि भारत का संविधान और अन्य भारतीय कानून इस मुद्दे पर क्या कहते हैं।

विचाराधीन कैदी व्यक्ति के चुनाव लड़ने से संबंधित भारतीय कानून

भारत में, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम (RPA), 1951 चुनावी प्रक्रिया को नियंत्रित करता है और यह निर्धारित करता है कि कौन चुनाव लड़ सकता है। यह कानून सिद्धदोष व्यक्तियों और केवल विचाराधीन व्यक्तियों के बीच अंतर करता है।

लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम (RPA) के अनुसार, भारत में जेल में बंद व्यक्ति चुनाव लड़ सकते हैं, बशर्ते वे सिद्धदोष न हों। अर्थात, भारतीय कानून आपराधिक आरोपों वाले लोगों को चुनाव लड़ने से तब तक नहीं रोकता जब तक कि वे सिद्धदोष न ठहराए जाएं। हालांकि, ऐसे व्यक्ति भारतीय न्यायिक प्रणाली के अनुसार अपना वोट नहीं डाल सकते, जो कि पूरे देश में अन्य आरोपी व्यक्तियों पर लागू है।

लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम विभिन्न चुनावों, जैसे कि संसदीय (लोक सभा और राज्य सभा) चुनावों और राज्य विधान सभा चुनावों, को आयोजित करने का आधार तैयार करता है। इस अधिनियम को लागू करने के साथ, देश के प्रत्येक नागरिक के लिए मतदान का अधिकार सुनिश्चित किया गया है।

आरपीए चुनाव से जुड़े कई मुद्दों से निपटता है। इनमें निर्वाचन क्षेत्र का परिसीमन, मतदाता की अर्हता और अनर्हता, उम्मीदवार का नामांकन, मतदाता सूची तैयार करना, मतदान का संचालन, वोटों की गिनती और परिणामों की घोषणा शामिल हैं। आरपीए चुनावी प्रक्रियाओं को स्पष्ट रूप से निर्धारित करता है, और चुनाव प्रक्रिया की पारदर्शिता, निष्पक्षता और जवाबदेही सुनिश्चित करता है। अधिनियम में उन व्यक्तियों के लिए मतदान के अधिकार और निर्वाचित होने के अधिकार के प्रयोग के संबंध में भी अलग-अलग प्रावधान किए गए हैं, जिन पर आपराधिक मामले दर्ज हैं या जो जेल में बंद हैं।

आरपीए के कुछ प्रावधान निम्नलिखित हैं:

अधिनियमन, उद्देश्य, विषय-क्षेत्र और संशोधन: 1951 में, बी.आर. अंबेडकर ने लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम पेश किया था, जबकि अंतरिम संसद ने नव स्वतंत्र भारत में प्रथम आम चुनावों से पूर्व इसे लागू किया था। आरपीए का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि देश भर में चुनावी प्रक्रिया सुचारु रूप से संपन्न हो। यह निर्वाचन संपन्न कराने के लिए विधिक ढांचे से संबंधित है, जैसे कि निर्वाचन संबंधी विवादों का समाधान, उम्मीदवारों की अर्हता और निरर्हता के मानदंड, व्यवस्थित चुनावी प्रक्रियाएं, और निर्वाचन संबंधी कदाचार।

समय के साथ, आरपीए में कई संशोधन किए गए हैं ताकि निर्वाचन संबंधी बदलती चुनौतियों से प्रभावी ढंग से निपटा जा सके। इन संशोधनों में निचली अदालतों से उच्च न्यायालयों में चुनाव याचिकाओं के स्थानांतरण और चुनाव न्यायाधिकरणों को समाप्त करने जैसी व्यवस्थाएं शामिल हैं।

विभिन्न पदों पर आरपीए का लागू होना: आरपीए निम्नलिखित पर लागू होता होता है:

प्रधानमंत्री: आरपीए में प्रधानमंत्री की अनर्हता से संबंधित प्रावधान हैं, अर्थात वह स्थिति जब प्रधानमंत्री संसद सदस्य (सांसद) के रूप में अर्हता के मानदंडों को पूरा करने में विफल हो जाता/जाती है।

राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति: यह अधिनियम राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति के निर्वाचन तथा उनकी निरर्हता से संबंधित विवादों एवं शंकाओं से निपटने का प्रावधान करता है।

अध्यक्ष: यह अधिनियम लोक सभा अध्यक्ष को अयोग्य ठहराने के मानदंडों का भी उल्लेख करता है। ये मानदंड ऐसे मामलों से संबंधित हो सकते हैं जहां विधेयकों का प्रमाणन त्रुटिपूर्ण रूप से किया गया हो, अर्थात भारतीय संविधान के अनुसार न किया गया हो।

निरर्हता: कुछ कारक

सिद्धदोष प्रतिनिधि: लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत, सांसदों और विधान सभा सदस्यों (विधायकों) को किसी अपराध के लिए सिद्धदोष ठहराए जाने पर निर्रहित घोषित किया जा सकता है। अर्थात, कारागार में बंद व्यक्ति चुनाव लड़ने के लिए तभी निर्रह ठहराया जाएगा जब उसका दोष सिद्ध हो जाए, लेकिन सिर्फ इसलिए नहीं कि उसके खिलाफ कोई आरोप लगाया गया है। निरर्ह ठहराए जाने पर उसे तत्काल अपनी सीट खाली करनी होगी।

लाभ का पद धारण करने वाले प्रतिनिधि: लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 102 तथा 191 के तहत, निर्वाचित प्रतिनिधि लाभ का पद धारण नहीं कर सकते।

सिद्धदोष और विचाराधीन: लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 के अनुसार, कोई भी व्यक्ति जिसे किसी अपराध के लिए सिद्धदोष ठहराया गया है और जिसे दो वर्ष या उससे अधिक की सजा सुनाई गई है, वह चुनाव लड़ने के लिए निरर्ह हो जाता है। यह निरर्हता कारावास से रिहा होने के पश्चात छह वर्षों तक बनी रहती है। हालांकि, कुछ विशेष अपराध जैसे कि समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देना, रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार से संबंधित अपराधों में दोष सिद्ध होते ही निरर्हता लागू हो जाती है।

हालांकि, कानून विचाराधीन उम्मीदवारों के साथ अलग तरीके से व्यवहार करता है। कोई भी व्यक्ति जो किसी मुकदमे में विचाराधीन है और अभी उसका दोष सिद्ध नहीं हुआ है, उसे चुनाव लड़ने के लिए अनर्ह नहीं माना जाता। यह ‘दोषी सिद्ध होने तक निर्दोष’ के कानूनी सिद्धांत से प्रेरित है। इस प्रकार, भले ही कोई उम्मीदवार मुकदमे के दौरान जेल में बंद हो, वह कानूनी रूप से चुनाव लड़ सकता/सकती है।

यद्यपि कारागार में बंद व्यक्ति (जो सिद्धदोष घोषित नहीं हुए हैं) चुनाव लड़ सकते हैं, तथापि उन्हें मौजूदा चुनावों में मतदान करने की अनुमति नहीं है। आरपीए की धारा 62(5) के अनुसार, “कोई भी व्यक्ति, किसी निर्वाचन में मत नहीं डालेगा यदि वह कारावास या निर्वासन के दंडादेश के अधीन या अन्यथा कारावास में परिरुद्ध है या पुलिस की विधिपूर्ण परिरक्षा में है।”

उच्चतम न्यायालय के निर्णय

भारत के उच्चतम न्यायालय ने समय-समय पर निर्वाचन से संबंधित कानूनों की व्याख्या करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लिली थॉमस बनाम भारत संघ एवं अन्य (2013) मामले के ऐतिहासिक निर्णय में, न्यायालय ने निर्णय दिया कि गंभीर अपराधों में सिद्धदोष निर्वाचित प्रतिनिधियों को तत्काल पद धारण करने से निर्रह घोषित कर दिया जाएगा। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि पदस्थ सांसदों और विधायकों को संरक्षण देने के लिए बनाए गए प्रावधान का अधिनियमन संसद की शक्तियों के दायरे से बाहर है। न्यायालय ने यह भी उल्लेख किया कि पदस्थ सांसदों और विधायकों की निर्रहता भी वैसी ही होनी चाहिए जैसी उन व्यक्तियों की होती है जिन्हें सांसद या विधायक चुना जाना है। न्यायालय ने निर्णय दिया कि संसद, सांसदों और विधायकों की निर्रहता को परिभाषित करने वाले कानून बना सकती है, किंतु निर्रहता की तारीख में देरी करके या मौजूदा सांसदों और विधायकों को दोषसिद्धि से संबंधित निर्रहता से बचाने वाले प्रावधान को लागू करके संविधान के अनुच्छेद 101(3)(क) और 190(3)(क) के तहत निर्रहता के कारण सदन की सीट खाली होने से नहीं रोक सकती।

इस निर्णय ने स्वच्छ राजनीति की आवश्यकता को और मजबूत किया, लेकिन विचाराधीन उम्मीदवारों से संबंधित प्रावधानों में कोई बदलाव नहीं किया।

नवीनतम घटनाक्रम

अठारहवीं लोक सभा के चुनाव में अमृतपाल सिंह, जेल में बंद सिख उपदेशक, खडूर साहिब निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव जीते और शेख अब्दुल रशीद बारामुला निर्वाचन क्षेत्र से विजयी हुए। असामान्य बात यह है कि मुकदमे का सामना करते हुए तथा जेल में बंद होने के बावजूद, दोनों को संवैधानिक अधिदेश (mandate) प्राप्त हुआ। लेकिन इन उम्मीदवारों को अठारहवीं लोक सभा की कार्यवाहियों में भाग लेने की अनुमति नहीं थी। हालांकि, उन्हें सांसद के रूप में शपथ लेनी थी, जो उनका संवैधानिक अधिकार था। बाद में जेल में बंद दोनों नेताओं को शपथ लेने के लिए संसद भेजा गया। शपथ के बाद उन्हें वापस जेल भेज दिया गया।

पूर्व के कई उदाहरणों में, हालांकि संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है, लेकिन जेल में बंद नेताओं को जमानत पर नहीं बल्कि अस्थायी पैरोल पर शपथ लेने की अनुमति दी गई। उदाहरण के लिए, हाल ही में जेल में बंद आम आदमी पार्टी (आप) के नेता संजय सिंह को राज्य सभा सदस्य के रूप में दूसरे कार्यकाल के लिए शपथ लेने की अनुमति दी गई। इसी प्रकार, अनंत सिंह (2020), लालू प्रसाद यादव (2013), और जयललिता (2020) ने जेल से चुनाव जीते और सांसद के रूप में शपथ ली। इसके अलावा, 1977 में, जॉर्ज फर्नांडिस ने आपातकाल के बाद के चुनाव में जेल से चुनाव जीता और उन्हें अस्थायी पैरोल पर शपथ लेने की अनुमति दी गई।

इसके अलावा, यदि जेल में बंद नेताओं को संसद की कार्यवाही में भाग लेना हो या सरकार के किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर मतदान करना हो, तो उन्हें न्यायालय में अपील करने की अनुमति दी जाती है।


संविधान के अनुच्छेद 101(4) के तहत, यदि संसद का सदस्य 60 दिनों से अधिक समय तक संसद की अनुज्ञा के बिना उसके सभी अधिवेशनों से अनुपस्थित रहता है तो उसकी सीट रिक्त मानी जाती है। जबकि लोक सभा के प्रक्रिया तथा कार्य-संचालन नियमावली के नियम 242 के अनुसार, संसद सदस्य को शपथ लेने के बाद सदन से अपनी अनुपस्थिति के बारे में अध्यक्ष को लिखित रूप में सूचित करना चाहिए। अध्यक्ष सदस्यों की अनुपस्थिति संबंधी समिति के साथ इस मामले पर आगे की चर्चा करता है। इसके बाद समिति इस पर विचार करती है कि क्या ऐसे सदस्यों को सदन की कार्यवाही में भाग न लेने की अनुमति दी जाए और इसके बाद अपनी सिफारिश देती है। अध्यक्ष इस सिफारिश को सदन में मतदान के लिए प्रस्तुत करता है।


विचाराधीन कैदी उम्मीदवारों के चुनाव लड़ने से संबंधित चिंताएं

कारागार में बंद उम्मीदवारों द्वारा चुनाव में खड़ा होना विवादास्पद है और इसने भारतीय समाज में कई महत्वपूर्ण चिंताओं को जन्म दिया है।

निर्दोषता की पूर्वधारणा बनाम सार्वजनिक नैतिकता: विधिक सिद्धांत के अनुसार कोई व्यक्ति तब तक निर्दोष समझा जाएगा जब तक कि वह दोषी सिद्ध नहीं हो जाता। यह विचाराधीन उम्मीदवारों के चुनाव में खड़े होने की अनुमति को आधार प्रदान करता है। हालांकि, आलोचकों द्वारा यह तर्क दिया जाता है कि गंभीर आपराधिक आरोपों का सामना करने वाले लोगों को चुनाव में खड़े होने की छूट देना लोकतांत्रिक प्रक्रिया में लोगों के विश्वास को कमजोर करता है तथा राजनीति में अपराधीकरण को बढ़ावा दे सकता है।

राजनीति में अपराधीकरणः भारतीय राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि से संबद्ध उम्मीदवारों की बढ़ती संख्या राजनीति में अपराधीकरण से संबंधित प्रमुख चिंताओं में से एक है। आलोचकों का तर्क है कि भारत का वर्तमान विधिक ढांचा गंभीर आपराधिक आरोपों से घिरे लोगों को विधि व्यवस्था का लाभ उठाने, चुनाव लड़ने, और संभावित रूप से न्यायिक प्रक्रिया को प्रभावित करने की सुविधा प्रदान करता है। इसने ऐसे उम्मीदवारों, जब तक उनके मामलों पर औपचारिक निर्णय न हो जाए, को चुनाव लड़ने से रोकने हेतु सुधारों की मांगों में वृद्धि की है।

निर्वाचन संबंधी निष्पक्षता तथा मतदाताओं की पसंदः वर्तमान व्यवस्था के समर्थकों का मानना है कि विचाराधीन उम्मीदवारों को निरर्ह घोषित किया जाना राजनीतिक विरोधियों द्वारा प्रतिस्पर्धा को समाप्त करने के लिए विधिक प्रक्रियाओं के दुरुपयोग को बढ़ावा दे सकता है। वे यह दावा भी करते हैं कि अंतिम अधिकार मतदाताओं के पास होना चाहिए, और यदि वे किसी विचाराधीन उम्मीदवार को चुनने का विकल्प चुनते हैं, तो यह लोगों की इच्छा या पसंद को दर्शाता है। हालांकि, यह चुनाव संबंधी निष्पक्षता तथा प्रतिनिधित्व के स्वरूप पर पड़ने वाले प्रभाव के संबंध में प्रश्न खड़े करता है।

निष्कर्ष

भारत में कारागार में बंद उम्मीदवारों द्वारा चुनाव लड़ने का मुद्दा एक जटिल चुनौती खड़ी करता है जो मूलभूत विधिक सिद्धांतों, चुनावों की निष्पक्षता, और लोकतंत्र के स्वरूप पर प्रभाव डालता है। इस मुद्दे से निपटने के लिए अनेक प्रयास किए गए हैं। भारत के विधि आयोग ने अपनी 244वीं रिपोर्ट में यह अनुशंसा की कि उन व्यक्तियों, जिनके विरुद्ध किसी न्यायालय द्वारा आरोप विरचित किए गए हैं, को चुनावों में भाग लेने से निरर्ह घोषित किया जाना चाहिए। हालांकि, इन अनुशंसाओं को अब तक लागू नहीं किया गया है। इसके अलावा, उच्चतम न्यायालय ने यह सुनिश्चित करने के लिए कि विधिक प्रक्रियाओं में अनावश्यक रूप से देरी न हो, निर्वाचित प्रतिनिधियों से संबंधित मामलों के त्वरित निपटान का आह्वान किया है।

आरपीए उन वैधानिक विनियमों का वर्णन करता है जिनके द्वारा चुनाव लड़ने के अधिकार तथा मत देने के अधिकार प्रशासित होते हैं। यह सुनिश्चित करता है कि चुनाव निष्पक्ष, उत्तरदायी, और न्यायोचित हो। मत देने के अधिकार को एक मौलिक अधिकार नहीं माना जाता है। इसके विपरीत, चुनाव लड़ने के अधिकार में अपवाद एवं मुद्दे शामिल हैं जो निर्वाचन के सिद्धांतों तथा प्रक्रियाओं को आकार देते हैं। यद्यपि मौजूदा विधिक ढांचा निष्पक्षता की धारणा को बरकरार रखता है, तथापि यह राजनीति में अपराधीकरण की संभावनाओं के बारे में चिंताएं भी उत्पन्न करता है। इन विरोधी चिंताओं के बीच संतुलन स्थापित करने के लिए ऐसे चिंतनशील विचार तथा संभावित रूप से विधिक सुधार आवश्यक हैं जो निर्वाचन प्रक्रिया की निष्पक्षता तथा सत्यनिष्ठा दोनों सुनिश्चित कर सकें। जैसा कि भारत निरंतर एक शक्तिशाली लोकतंत्र के रूप में विकसित हो रहा है, यह मुद्दा बहस और संभावित सुधारों का एक समीक्षात्मक क्षेत्र बना रहेगा।

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