भारत के उच्चतम न्यायालय (एससी) ने 5 अप्रैल, 2024 को पहली बार यह स्वीकार किया कि जलवायु परिवर्तन के हानिकारक प्रभावों से सुरक्षा एक मौलिक अधिकार है, जो जीवन और समता के अधिकार से निकटता से संबद्ध है और भारतीय संविधान में निहित है। यह मान्यता भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिए गए फैसले का हिस्सा थी। पीठ, ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (जीआईबी) (अर्डियोटिस नाइग्रिसेप्स—Ardeotis nigriceps) के संरक्षण से संबंधित एक मामले की सुनवाई कर रही थी। गुजरात और राजस्थान में विद्युत पारेषण लाइनों के कारण जीआईबी अपना निवास स्थान खोता जा रहा है।
मामले की पृष्ठभूमि
जीआईबी दक्षिणी और पश्चिमी भारत के देशज पक्षी की एक प्रजाति है, जो मूलतः राजस्थान में पाई जाती है। आमतौर पर यह पक्षी घास के मैदानों और शुष्क भूभागों में निवास करता है। पिछले कुछ वर्षों में, जीआईबी की आबादी में भारी गिरावट आई है, जिसके कारण इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) ने 2011 में इसे ‘गंभीर रूप से लुप्तप्राय’ के रूप में वर्गीकृत किया, और इस स्थिति की पुष्टि 2018 की आकलन रिपोर्ट में भी की गई। इससे पहले, इस प्रजाति को 1994 से 2008 तक ‘लुप्तप्राय’ और 1988 में ‘संकाटापन्न’ के रूप में सूचीबद्ध किया गया था। इस प्रजाति की आबादी में यह चिंताजनक गिरावट मुख्य रूप से इसके निवास स्थान के विनाश, शिकार, मानवीय कार्यकलापों से उत्पन्न व्यवधानों के कारण आई है, जिससे इस प्रजाति को कार्यात्मक रूप से विलुप्त होने से बचाने के लिए तत्काल संरक्षण प्रयास आवश्यक हो गए हैं।
2013 में, राजस्थान सरकार ने जीआईबी की संख्या लगभग 125 होने का अनुमान लगाया था, जबकि आईयूसीएन द्वारा वयस्क पक्षियों की संख्या 50 से 249 बताई गई थी। पहले से ही कम संख्या और धीमी प्रजनन दर के कारण इस प्रजाति को और भी अधिक खतरों का सामना करना पड़ रहा है। इन खतरों में प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, शिकारी और आक्रामक प्रजातियों से प्रतिस्पर्धा शामिल हैं। ऊपर से गुजरने वाली विद्युत पारेषण लाइनें एक बड़ा खतरा पैदा करती हैं, जबकि स्थानीय शिकारी और चरते हुए मवेशी इन पक्षियों द्वारा भूमि पर दिए गए अंडों को नुकसान पहुंचाते हैं। इसके अतिरिक्त, मनुष्यों की संख्या में वृद्धि, बुनियादी ढांचे के विकास और विखंडन के कारण आवास की क्षति से इस प्रजाति का अस्तित्व और अधिक खतरे में पड़ गया है।
इन चुनौतियों के मद्देनजर, संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत एक रिट याचिका दायर की गई, जिसमें न्यायालय से जीआईबी के संरक्षण हेतु किए जा रहे प्रयासों में हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया गया। याचिकाकर्ता ने गंभीर रूप से संकटग्रस्त इस प्रजाति के संरक्षण के लिए न्यायिक निर्देशों की मांग की, और संरक्षण उपायों को सशक्त बनाने की तत्काल आवश्यकता पर बल दिया।
निर्णय
एक ऐतिहासिक निर्णय में, उच्चतम न्यायालय ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के दायरे को व्यापक बनाते हुए इसमें “जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों के विरुद्ध अधिकार” को भी शामिल किया। तीन न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 48क यह निर्देश देता है कि राज्य, देश के पर्यावरण के संरक्षण तथा संवर्धन और वन एवं वन्य जीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा। संविधान के अनुच्छेद 51क का खंड (छ) भारत के प्रत्येक नागरिक से यह आह्वान करता है कि वह प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव शामिल हैं, की रक्षा और संवर्धन करे तथा प्राणि मात्र के प्रति दयाभाव रखे। यद्यपि ये प्रावधान न्यायालय में बाध्यकारी नहीं हैं, तथापि ये संकेत देते हैं कि संविधान प्राकृतिक विश्व के महत्व को स्वीकार करता है।
इस निर्णय में आगे कहा गया कि पर्यावरण के महत्व, जो कि इन उपबंधों में सूचित हैं, को संविधान के अन्य भागों में एक अधिकार के रूप में स्थापित किया गया है। अनुच्छेद 21 प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार सुनिश्चित करता है, जबकि अनुच्छेद 14 यह सुनिश्चित करता है कि भारत के राज्यक्षेत्र में सभी व्यक्तियों को विधि के समक्ष समानता और विधियों से समान संरक्षण प्राप्त करने का अधिकार है। ये अनुच्छेद स्वच्छ पर्यावरण के अधिकार और जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से संरक्षण के अधिकार के लिए एक महत्वपूर्ण आधार प्रदान करते हैं।
न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि भले ही सरकार की विभिन्न नीतियों, नियमों और विनियमों में जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों को स्वीकार किया गया है और उनसे निपटने के प्रयास किए गए हैं, फिर भी भारत में अब तक ऐसा कोई एक व्यापक और विशेष कानून नहीं है जो पूरी तरह से जलवायु परिवर्तन और उससे संबद्ध समस्याओं पर केंद्रित हो। तथापि, न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि इसका यह अर्थ नहीं है कि भारत के नागरिकों को जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से सुरक्षा का अधिकार नहीं है।
स्वच्छ पर्यावरण के अधिकार के संबंध में, न्यायालय ने कहा कि जलवायु परिवर्तन की अस्थिरता से स्थिर और अप्रभावित स्वच्छ वातावरण के बिना, जीवन के अधिकार को पूरी तरह से महसूस नहीं किया जा सकता। स्वास्थ्य का अधिकार, जो अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का एक हिस्सा है, वायु प्रदूषण, वेक्टर जनित रोगों में बदलाव, बढ़ते तापमान, सूखा, फसल की विफलता, तूफान और बाढ़ के कारण खाद्यान्नों की कमी जैसे मुद्दों से प्रभावित होता है। जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के साथ अनुकूलित होने या उनका सामना करने हेतु वंचित समुदायों की असमर्थता, जीवन के अधिकार (अनुच्छेद 21) के साथ-साथ समता के अधिकार (अनुच्छेद 14) का भी उल्लंघन करती है।
इससे पहले 19 अप्रैल, 2021 को, उच्चतम न्यायालय की एक पीठ ने पक्षियों की सुरक्षा के लिए गुजरात और राजस्थान के कुछ भागों सहित लगभग 99,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में भूमि के ऊपर पारेषण लाइनें लगाने पर प्रतिबंध लगाए थे। न्यायालय ने सतह के ऊपर मौजूदा निम्न और उच्च वोल्टेज की विद्युत लाइनों को भूमिगत लाइनों में परिवर्तित करने का भी प्रस्ताव दिया था। इसके पश्चात, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय, विद्युत मंत्रालय तथा नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय ने उच्चतम न्यायालय से अपने निर्देशों में संशोधन करने का अनुरोध किया। उन्होंने इस तथ्य पर प्रकाश डाला कि गैर-जीवाश्म ईंधनों में संक्रमण करने और उत्सर्जन में कमी लाने के संबंध में भारत की अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताएं हैं और विवादित क्षेत्र में देश की सौर और पवन ऊर्जा क्षमता का महत्वपूर्ण हिस्सा मौजूद है। मंत्रालयों ने यह भी तर्क दिया कि उच्च वोल्टेज की विद्युत लाइनों को भूमिगत तारों में बदलना तकनीकी रूप से अव्यावहारिक था।
अनुरोध स्वीकार करते हुए पीठ ने आदेश के क्रियान्वयन में तकनीकी मुद्दों, भूमि अधिग्रहण संबंधी कठिनाइयों और अत्यधिक लागत सहित व्यावहारिक चुनौतियों को स्वीकार किया। पीठ की ओर से निर्णय लिखते हुए, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने नवीकरणीय, विशेषकर सौर ऊर्जा, के उपयोग के महत्व पर जोर देते हुए जलवायु परिवर्तन से संबंधित राजनीति के मुद्दों को भी संबोधित किया। उन्होंने जीआईबी के संरक्षण और पर्यावरण संरक्षण के व्यापक लक्ष्य के बीच संतुलन स्थापित करने की आवश्यकता की ओर ध्यान दिलाया। उच्चतम न्यायालय ने कहा, “उच्च और निम्न वोल्टेज की विद्युत लाइनों को भूमिगत करने के लिए एक व्यापक निर्देश, जैसा कि इस न्यायालय द्वारा निर्देशित किया गया है, के लिए पुनः जांच करने की आवश्यकता होगी”। इसके बाद न्यायालय ने “निर्दिष्ट क्षेत्रों में विद्युत लाइनों को भूमिगत करने की व्यावहारिकता का आकलन करने, जिसमें भौगोलिक स्थिति, जनसंख्या घनत्व और अवसंरचना संबंधी आवश्यकताओं जैसे कारकों को ध्यान में रखा जाए”, के लिए एक नौ सदस्यीय विशेषज्ञ समिति का गठन किया। न्यायालय ने समिति को आगे निर्देश दिया कि वह “अपना कार्य पूरा करके 31 जुलाई, 2024 या उससे पहले अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार के माध्यम से इस न्यायालय में प्रस्तुत करे।”
न्यायालय ने उल्लेख किया कि भारत ने 2022 तक 175 गीगावाट की स्थापित अक्षय ऊर्जा क्षमता, जिसमें व्यापक जल विद्युत शामिल नहीं है, हासिल करने का लक्ष्य रखा है, यह लक्ष्य स्वच्छ ऊर्जा अपनाने के प्रति देश की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। इसके अतिरिक्त, अगला लक्ष्य 2030 तक 450 गीगावाट की स्थापित क्षमता प्राप्त करना है।
न्यायालय ने टिप्पणी की कि, इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए, भारत ने नवीकरणीय ऊर्जा निवेश, नवाचार, और अनुकूलन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से विभिन्न नीतिगत उपायों और पहलों को लागू किया है। न्यायालय ने इस मामले में केंद्र के हलफनामे का भी उल्लेख किया, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया था कि गैर-जीवाश्म ईंधन में संक्रमण करने के लिए भारत की प्रतिबद्धता केवल एक रणनीतिक ऊर्जा लक्ष्य प्राप्त करने हेतु नहीं है, बल्कि यह पर्यावरण संरक्षण के लिए एक महत्वपूर्ण आवश्यकता के हेतु भी है। न्यायालय ने कहा, “नवीकरणीय ऊर्जा में निवेश से न केवल इन जरूरी पर्यावरणीय मुद्दों का समाधान होगा, बल्कि इसके व्यापक सामाजिक-आर्थिक लाभ भी होंगे।“
पीठ ने कहा कि समाज के सभी वर्गों, विशेषकर ग्रामीण और वंचित क्षेत्रों के लिए स्वच्छ और किफायती ऊर्जा तक पहुंच सुनिश्चित करते हुए सामाजिक समानता को आगे बढ़ाने के लिए अक्षय ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देना आवश्यक है। इससे गरीबी उन्मूलन में सहायता मिलेगी, जीवन की गुणवत्ता में सुधार होगा तथा देशभर में समावेशी संवृद्धि एवं विकास को बढ़ावा मिलेगा। पीठ ने इस बात पर भी जोर दिया कि अक्षय ऊर्जा को अपनाना न केवल एक पर्यावरणीय आवश्यकता है, बल्कि भविष्य में भारत की समृद्धि, लचीलेपन और संधारणीयता में एक रणनीतिक निवेश भी है।
पीठ ने राज्यों के लिए अधिकार-आधारित दृष्टिकोण से जलवायु प्रभावों का समाधान करने की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा कि, जलवायु परिवर्तन और मानवाधिकारों के बीच के अतिव्यापी संबंध ने हाल ही में महत्वपूर्ण रूप से सबका ध्यान आकर्षित किया है । इसने कहा कि “नागरिकों के प्रति राज्यों का यह कर्तव्य है कि वे उन्हें नुकसान से बचाएं और समग्र रूप से उनका कल्याण सुनिश्चित करें,” और यह भी कहा कि “स्वस्थ और स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार निस्संदेह इस कर्तव्य का एक अभिन्न हिस्सा है”। पीठ ने इस बात पर भी जोर दिया कि राज्यों का यह दायित्व है कि वे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का शमन करने के लिए प्रभावी कदम उठाएं और यह सुनिश्चित करें कि सभी व्यक्तियों में जलवायु संकट के प्रति अनुकूलन की क्षमता हो।
पीठ ने उल्लेख किया कि देश में बिजली की बढ़ती मांग को समयबद्ध और सतत तरीके से पूरा करने के लिए राजस्थान और गुजरात में नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से विद्युत उत्पन्न करना अत्यंत आवश्यक है। इसने यह भी कहा कि यह जलवायु परिवर्तन के संबंध में भारत की अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के लिए आवश्यक है।
पीठ ने वैश्विक स्तर पर स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों की ओर संक्रमण करने के लिए सौर ऊर्जा के महत्व को एक महत्वपूर्ण समाधान के रूप में रेखांकित किया। इसने कहा कि भारत को तीन महत्वपूर्ण मुद्दों के कारण तत्काल अपना रुख सौर ऊर्जा की ओर करने की आवश्यकता है:
पहला, अगले दो दशकों में वैश्विक ऊर्जा की मांग में भारत की हिस्सेदारी 25 प्रतिशत होने की उम्मीद है, जिसके कारण ऊर्जा सुरक्षा, आत्मनिर्भरता और पर्यावरणीय प्रभावों को कम करने के लिए सौर ऊर्जा की ओर संक्रमण करना आवश्यक हो जाएगा। यदि ऐसा नहीं किया गया तो कोयला और तेल पर निर्भरता बढ़ सकती है, जिससे आर्थिक और पर्यावरणीय दोनों प्रकार की लागतों में वृद्धि हो सकती है। दूसरा, अत्यधिक वायु प्रदूषण, जीवाश्म ईंधनों से होने वाले प्रदूषण को कम करने के लिए, सौर ऊर्जा जैसे स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों की आवश्यकता दर्शाता है। अंत में, भूजल स्तर में गिरावट और घटती वर्षा ऊर्जा स्रोतों में वृद्धि करने की आवश्यकता को चिह्नांकित करते हैं। सौर ऊर्जा, कोयले के विपरीत, भूजल भंडार को समाप्त नहीं करती। पीठ ने जोर देकर कहा कि सौर ऊर्जा का व्यापक उपयोग स्वच्छ, किफायती और सतत ऊर्जा प्राप्त करने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
उच्चतम न्यायालय ने अप्रैल 2021 के आदेश को लागू करने में आई तकनीकी चुनौतियों को संबोधित करते हुए कहा कि भूमिगत विद्युत पारेषण की तारें केवल 400 किलोवोल्ट में उपलब्ध हैं, जिनकी लंबाई 250 मीटर तक है। यह अधिकाधिक जोडों, जिससे रिसाव का खतरा बढ़ जाएगा, में परिणत होगा। न्यायालय ने यह भी कहा कि इन तारों से लगभग पांच गुना अधिक पारेषण हानि होती है, जैसा कि वे प्रत्यावर्ती विद्युत धारा (एसी) को संचारित करने में कम सक्षम होती हैं।
पीठ ने यह भी उल्लेख किया कि विद्युत अधिनियम, 2003 भूमिगत तारें बिछाने के लिए आवश्यक भूमि अधिग्रहण का प्रावधान नहीं करता, जबकि ऊपरी पारेषण लाइनों के लिए केवल अधिकृत मार्ग आवश्यक होता है। इसने यह भी संकेत दिया कि भूमिगत तारें संवेदनशील प्रजातियों के लिए खतरा और वनाग्नि के जोखिम में वृद्धि जैसी पर्यावरणीय समस्याओं का कारण बन सकती हैं।
इस मुद्दे पर वैश्विक दृष्टिकोण
उच्चतम न्यायालय का निर्णय तब और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है जब हम इस मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय विधिक संस्थाओं के निर्णयों का अवलोकन करते हैं। उदाहरण के लिए, मानव अधिकारों के यूरोपीय न्यायालय (ईसीएचआर) ने स्विट्ज़रलैंड की एक ऐसी संस्था के अधिकारों को मान्यता दी, जिसमें वे वृद्ध महिलाएं शामिल थीं जो अपने जीवन पर पड़ने वाले वैश्विक तापमान वृद्धि के प्रभावों को लेकर चिंतित थीं। ईसीएचआर ने माना कि उत्सर्जन लक्ष्य को प्राप्त करने में स्विस सरकार की विफलता के कारण इन महिलाओं के मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ था।
डच सुप्रीम कोर्ट ने स्टेट ऑफ नीदरलैंड बनाम उर्जेंडा फाउंडेशन मामले में मानव अधिकारों पर यूरोपीय सम्मेलन के अनुच्छेद 2 (जीवन का अधिकार) और अनुच्छेद 8 (निजी और पारिवारिक जीवन का अधिकार) के तहत डच सरकार के दायित्व को स्वीकार किया और उसे जलवायु से संबंधित नीतियां अपनाने के लिए बाध्य किया।
निष्कर्ष
उच्चतम न्यायालय द्वारा जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध अधिकार को मान्यता देना पर्यावरण संरक्षण और मानवाधिकार दोनों ही क्षेत्रों में एक महत्वपूर्ण प्रगति प्रदर्शित करता है। यह ऐतिहासिक निर्णय सरकार पर यह दायित्व डालता है कि वह जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से निपटने के लिए प्रभावी कदम उठाए, जिससे न केवल पर्यावरण की रक्षा हो, बल्कि जीवन का अधिकार और समानता का अधिकार जैसे मौलिक अधिकार भी सुरक्षित रहें। यह निर्णय पर्यावरण संरक्षण, सतत विकास और मानव कल्याण के अंतर्संबंधों को स्पष्ट करता है।
पेरिस जलवायु समझौते जैसे अंतरराष्ट्रीय समझौतों के प्रति भारत की प्रतिबद्धता, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का शमन करने की उसकी वैश्विक जिम्मेदारी पर विचार करती है। न्यायालय ने भारत सरकार के इस उत्तर को स्वीकार किया कि जलवायु संबंधी चुनौतियों का समाधान करने में सरकारों की जवाबदेही को और अधिक सुदृढ़ करते हुए, देश को अपने अंतरराष्ट्रीय संधि दायित्वों को पूरा करना होगा।
इसके अलावा, भविष्य में यह देखना दिलचस्प होगा कि जलवायु परिवर्तन के संबंध में समुदायों द्वारा किए जा रहे सामूहिक प्रयासों या वर्गीय कार्यवाहियों पर उच्चतम न्यायालय कैसी प्रतिक्रिया देता है, खासकर जब यह राज्य और निजी उद्यमों दोनों के लिए चुनौतीपूर्ण है।
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