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नागरिकता अधिनियम,1955 की धारा 6क की संवैधानिकता की पुष्टि

17 अक्टूबर, 2024 को भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यीय पीठ, जिसमें मुख्य न्यायाधीश सहित न्यायाधीश सूर्य कांत, एम.एम. सुंदरेश, जे.बी. पारदीवाला तथा मनोज मिश्रा शामिल थे, द्वारा 4:1 के बहुमत से नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 6क को बनाए रखा गया। यह धारा उन आप्रवासियों को नागरिकता प्रदान करती है जो 25 मार्च, 1971 से पूर्व असम में आए थे।


धारा 6क एक विशेष उपबंध है जिसे 1971 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध के पश्चात राजीव गांधी के नेतृत्व वाली सरकार तथा असम आंदोलन के प्रतिनिधियों द्वारा 15 अगस्त, 1985 को हस्ताक्षरित असम समझौते (Assam Accord) को कार्यान्वित करने के लिए नागरिकता अधिनियम, 1955 में अंतःस्थापित किया गया था।

नागरिकता अधिनियम,1955 की धारा 6क को निम्नलिखित रूप में संरचित किया गया है:

  • भारतीय उद्भव का प्रत्येक ऐसा व्यक्ति जो विनिर्दिष्ट राज्यक्षेत्र से 1 जनवरी, 1966 के पूर्व असम में आया है, धारा 6क(2) के अनुसार भारत का नागरिक समझा जाएगा।
  • वे आप्रवासी जो 1 जनवरी,1966 और 25 मार्च, 1971 के बीच असम में आए हैं, जिनके धारा 6क(3) के तहत विदेशी होने का पता चला है और उन्होंने नागरिकता के लिए रजिस्ट्रीकरण कराया है, धारा 6क(5) के अनुसार भारत के नागरिक समझे जाएंगे। यद्यपि धारा 6क(4) के अनुसार, विदेशी के रूप में उनकी पहचान होने के पश्चात दस वर्ष की अवधि के अवसान तक उन्हें मतदान करने का अधिकार नहीं होगा।
  • कोई व्यक्ति जो 25 मार्च, 1971 के पश्चात असम में आया है, उसे एक अवैध प्रवासी माना जाता है और उसे नागरिकता प्रदान नहीं की जा सकती।

पृष्ठभूमि

20 नवंबर, 2019 को भारत के गृह मंत्री ने संसद में यह घोषणा की थी कि भारत सरकार वास्तविक नागरिकों की नामावली तैयार करने के उद्देश्य से संपूर्ण देश में नागरिकों का एक राष्ट्रीय रजिस्टर (National Register of Citizens—NRC) तैयार करेगी, जिसे पहले 1951 में असम में प्रस्तुत किया गया था।

भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने 12 दिसंबर, 2019 को नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA), 2019, जिसने भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955 में संशोधन किया, को स्वीकृति दे दी। यह संशोधन अफगानिस्तान, पाकिस्तान, और बांग्लादेश के हिंदू, सिख, जैन, पारसी, बौद्ध या ईसाई धर्म से संबंध रखने वाले उन लोगों नागरिकता प्राप्त करने की सुविधा प्रदान करने के उद्देश्य से किया गया, जिन्होंने 31 दिसंबर, 2014 से पहले भारत में प्रवेश किया है। आलोचक यह तर्क देते हैं कि एनआरसी और सीएए दोनों आपस में संबद्ध थे और बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार का उद्देश्य मुसलमानों को भारत के नागरिक के रूप में मान्यता प्रदान करने से बाहर रखना था।

याचिकाकर्ताओं की आपत्तियां एवं दावे

याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि धारा 6क ने अन्यायपूर्ण तरीके से असम को निशाना बनाया और सामूहिक प्रवास को बढ़ावा दिया। उन्होंने दावा किया कि इसने उन आप्रवासियों, जो 1971 की अंतिम तिथि से पूर्व भारत आने का दावा करते थे, को तत्काल नागरिकता प्रदान कर राज्य के जनसांख्यिकीय रूप को परिवर्तित कर दिया।

याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया कि धारा 6क संविधान के अनुच्छेद 6 और 7 का उल्लंघन करती है। अनुच्छेद 6 के अनुसार कोई व्यक्ति जिसने 19 जुलाई, 1948 से पूर्व पाकिस्तान से भारत में प्रव्रजन या प्रवेश किया है, भारत का नागरिक समझा जाएगा, जबकि इस तिथि के पश्चात आने वाले व्यक्तियों को नागरिकता के लिए आवेदन करना होगा जो तभी परिवर्तित होगा यदि व्यक्ति ने आवेदन करने से ठीक पहले कम से कम छह मास तक भारत में निवास किया हो। अनुच्छेद 7 उन लोगों को भारत में पुनःप्रवास से प्रतिबंधित करता है जिन्होंने 1 मार्च, 1947 के पश्चात पाकिस्तान को प्रव्रजन किया हो।

याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि धारा 6क पूर्वी पाकिस्तान से आने वाले लोगों को पुनः प्रवास की अनुमति देती है, और इस प्रकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 6 तथा 7 में फेर-बदल करती है।

याचिकाकर्ताओं का यह भी तर्क था कि धारा 6क तीन कारणों से अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करती है: प्रथमतः, इसका दायरा सीमित है जो केवल असम में आप्रवासियों को नागरिकता प्रदान करता है; द्वितीयतः, केवल असम में ऐसा करने का कोई प्रामाणिक कारण नहीं है जबकि बांग्लादेश की सीमा के निकटवर्ती अन्य राज्यों की उपेक्षा की जा रही है, जो कि समान हैं; तृतीयतः, यह अन्य राज्यों में प्रवेश करने वाले लोगों की तुलना में असम में प्रवेश करने वाले आप्रवासियों के लिए एक भिन्न तिथि निर्धारित करती है।

याचिकाकर्ताओं ने यह दावा करते हुए तर्क दिया कि धारा 6क अनुच्छेद 355 का उल्लंघन करती है, जैसा कि यह संवैधानिक संरक्षणों का उल्लंघन करते हुए असम में प्रवासन को रोकने की बजाय उसे प्रोत्साहित करती है।

इसके बाद उनका यह भी तर्क था कि अनुच्छेद 29 असम के अल्पसंख्यक वर्गों को संरक्षण प्रदान करता है। उनका दावा था कि बिना जांच-पड़ताल के बांग्लादेश से हुए प्रवासन ने न केवल असम के जनसांख्यिकीय रूप को परिवर्तित कर दिया है, बल्कि असम की संस्कृति और उसकी सांस्कृतिक पहचान के लिए भी खतरा बन गया है। इसके अलावा, नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 6क(3) अवैध प्रवासन की समस्या, अस्थायी समय सीमा के अभाव, तथा 1971 के पश्चातवर्ती आप्रवासियों द्वारा किए जा रहे शोषण को संबोधित करने में विफल होने और अपने वास्तविक आशय को कमजोर करने के कारण असंवैधानिक बन गई।

याचिकाकर्ताओं ने उजागर किया कि अन्य उपबंधों के विपरीत, धारा 6क(2) में रजिस्ट्रीकरण प्रक्रिया का अभाव है जिसके कारण यह अस्पष्टता और पक्षपातपूर्ण नागरिकता प्रदान करने के बारे में चिंता उत्पन्न करती है।

प्रतिवादी के कानूनी तर्क

प्रतिवादियों द्वारा यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि संसद, नागरिकता संबंधी मामलों में इसकी कानून बनाने की शक्ति पर बल देते हुए, के पास संविधान के अनुच्छेद 11 के अधीन धारा 6क को प्रवर्तित करने का प्राधिकार था। उन्होंने यह पुष्टि करते हुए उन दावों का खंडन किया, जिनमें कहा गया था कि अनुच्छेद 6 और 7 पूर्वी पाकिस्तान पर लागू होते हैं, कि वे भिन्न परिस्थितियों में प्रभावी होते हैं। असम के लिए एक पृथक व्यवस्था को न्यायोचित ठहराते हुए, उन्होंने इसके ऐतिहासिक संदर्भ तथा असम समझौते का हवाला दिया। उन्होंने तर्क दिया कि धारा 6क सामयिक रूप से अनुचित नहीं है बल्कि असम के नागरिकों तथा विदेशियों दोनों के अधिकारों की रक्षा करते हुए बहुसंस्कृतिवाद पर बल देती है और अनुच्छेद 21 के साथ संरेखित है।

उच्चतम न्यायालय का निर्णय

डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में एक सांविधानिक पीठ ने चार दिनों तक इस मामले से संबद्ध दलीलों को सुना और 12 दिसंबर, 2023 को अपना निर्णय सुरक्षित रखा।

न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि असम में एक समयबद्ध रीति से, अवैध प्रवासियों या विदेशियों की पहचान करने तथा उनका पता लगाने के लिए उत्तरदायी वैधानिक तंत्र और अधिकरण अक्षम, और आप्रवासी (आसाम से निष्कासन)अधिनियम 1950, विदेशियों विषयक अधिनियम 1946, विदेशी विषयक (अधिकरण) आदेश 1964, पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम 1920, तथा पासपोर्ट अधिनियम 1967 के साथ-साथ धारा 6क के वैधानिक उद्देश्यों को कार्यान्वित करने के प्रयोजन के लिए अपर्याप्त एवं असंगत थे।

दस महीने बाद, 17 अक्टूबर, 2024 को पीठ ने अपना निर्णय दिया। 407 पृष्ठों के निर्णय में तीन मत शामिल थे: न्यायाधीश सूर्य कांत, न्यायाधीश एम.एम. सुंदरेश तथा मनोज मिश्रा द्वारा दी गई बहुमत वाली राय, सीजेआई की सहमति वाला मत, और न्यायाधीश जे.बी. पारदीवाला का असहमति वाला मत।

न्यायालय ने यह माना कि संसद के पास नागरिकता पर कानून लागू करने का अधिकार है, संविधान के अनुच्छेद 11 द्वारा प्रदत्त, जो कानूनों को अनुमति देता है,चाहे वे अन्य उपबंधों के विरुद्ध हों। इसके अलावा, न्यायालय ने सातवीं अनुसूची की सूची 1 की प्रविष्टि 17 को संदर्भित किया जो इस अधिकार, नागरिकता, देशीयकरण, और विदेशियों, का समर्थन करने का वर्णन करती है। इसने उल्लेख किया कि प्रारूप बनाने के दौरान अनुच्छेद 11 में संशोधन, नागरिकता से संबंधित विधानों पर संसद को व्यापक विशेषाधिकार देने के संविधान निर्माताओं के अभिप्राय को दर्शाता है।

न्यायालय ने यह निर्दिष्ट करते हुए धारा 6क को यथावत बरकरार रखा कि यह अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं करती। न्यायालय ने भिन्न व्यवस्था के लिए एक वैध आधार के रूप में असम समझौते का हवाला देते हुए, याचिकाकर्ताओं के इस तर्क को मानने से अस्वीकार कर दिया कि धारा 6क असम की देशज जनसंख्या के विरुद्ध पक्षपात करती है। इसने असम के प्रवासन संबंधी मुद्दों के एक राजनीतिक समाधान के रूप में समझौते को मान्यता दी। न्यायालय ने निर्दिष्ट किया कि युक्तियुक्त वर्गीकरण अनुच्छेद 14 के अधीन अनुमत हैं, और चुनी गई अंतिम तिथियां, ऐतिहासिक घटनाओं से संबद्ध, पक्षपातपूर्ण नहीं थी। ये तिथियां, 1966 के प्रवासन चक्र तथा 1971 के बांग्लादेश मुक्ति युद्ध जैसे ध्यानाकर्षित करने वाले महत्वपूर्ण समय, उचित समझी गई और चिंतनशील चर्चाओं पर आधारित थी।

न्यायालय याचिकाकर्ताओं के इस दावे से असहमत था कि धारा 6क अनुच्छेद 355 का अतिक्रमणात्मक रूप है, और इसने कहा कि धारा 6क का कार्यक्षेत्र सीमित था तथा इसने भारत की प्रतिबद्धताओं, अंतरराष्ट्रीय संबंधों, और प्रशासनिक वास्तविकताओं को संतुलित करते हुए, असम के प्रवासन संबंधी मुद्दों के लिए एक व्यावहारिक समाधान प्रदान किया। न्यायालय ने धारा 6क को असम संघर्ष के एक राजनीतिक समाधान के रूप में देखा, जिसका उद्देश्य अशांति में वृद्धि करने की बजाय, शांति और व्यवस्था की पुनःबहाली करना था।

मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ का सहमतिपूर्ण मत: मुख्य न्यायाधीश के मतानुसार धारा 6क अनुच्छेद 29(1), जो किसी समूह के अपनी संस्कृति की रक्षा करने के अधिकारों को संरक्षित करता है, का उल्लंघन नहीं करती। उन्होंने स्पष्ट किया कि याचिकाकर्ता यह समझने में असमर्थ रहे हैं कि धारा 6क के तहत आप्रवासियों को प्रदान की जाने वाली नागरिकता किस प्रकार असम की संस्कृति को नुकसान पहुंचा सकती है। यद्यपि उन्होंने माना कि असम में बंगाली जनसंख्या में होने वाली वृद्धि असम की संस्कृति के लिए खतरा हो सकती है, तथापि वे इनके बीच प्रत्यक्ष संबंध सिद्ध नहीं कर सके। मुख्य न्यायाधीश ने इस निष्कर्ष के साथ कि धारा 6क असम की संस्कृति के संरक्षण में बाधा नहीं डालती, इस बात पर जोर दिया कि असम के पास अपनी संस्कृति एवं भाषा की रक्षा करने के किए कई अन्य कानून हैं।

उन्होंने आगे कहा कि सामयिक अनुचितता के कारण धारा 6क(3), एक सिद्धांत जो यह सुझाव देता है कि समय के साथ कानून असंवैधानिक बन सकते हैं, असंवैधानिक नहीं है। उन्होंने असम में मताधिकारों के कम होने से संबंधित चिंताओं को स्वीकार किया, लेकिन इस बात पर भी बल दिया कि धारा 6क(3) का उद्देश्य बांग्लादेश से होने वाले प्रवासन की समस्या को संबोधित करना है और न कि केवल मताधिकारों की समस्या को। उन्होंने यह स्थापित करते हुए निर्णय दिया कि इस मामले में सामयिक अनुचितता लागू नहीं होनी चाहिए, और कहा कि असम में नागरिकता की पहचान और नागरिकता प्रदान करने की लंबी प्रक्रिया उपबंध की निरंतर प्रासंगिकता को न्यायसंगत बनाती है।

इसके अतिरिक्त, मुख्य न्यायाधीश ने यह मत भी दिया कि रजिस्ट्रीकरण की प्रक्रिया का स्पष्ट उल्लेख न करने के बावजूद धारा 6क(2) असंवैधानिक नहीं है। उन्होंने स्पष्ट किया कि 1987 में संशोधित नागरिकता नियम, ने धारा 6क(3) को लागू किया और यह प्रावधान किया कि किसी व्यक्ति के विदेशी होने से संबंधित कोई भी प्रश्न विदेशी अधिकरण को संदर्भित किया जाएगा। यद्यपि उन्होंने सीधे तौर पर याचिकाकर्ताओं द्वारा उठाई गई प्रक्रियात्मक चिंताओं का समाधान नहीं दिया, तथापि इस दावे को अस्वीकार कर दिया कि धारा 6क(2) में प्रक्रिया का अभाव है। बहुमत के निर्णय में भी इस बात पर बल दिया गया कि विभिन्न पूरक नियमों की व्याख्या धारा 6क के कार्यान्वयन के लिए एक समान रूपरेखा के भाग के रूप में की जानी चाहिए।

न्यायाधीश पारदीवाला की असहमति: उन्होंने 1966-71 से, विशेष रूप से प्रतिबंधित मतदान के संबंध में, प्रभावी रूप से आप्रवासियों की पहचान करने और उनका पता लगाने में धारा 6क(3) की विफलता के कारण इसकी आलोचना की। उन्होंने तर्क दिया कि उपबंध, जिसे निर्वाचन से संबंधित मामलों के निपटान के उद्देश्य से बनाया गया था, आप्रवासियों की पहचान करने में होने वाली देरी के कारण अप्रभावी बन गया। समय के साथ, अधिक अवैध आप्रवासियों को आकर्षित करने के कारण, इसके कमजोर कार्यान्वयन ने इस मुद्दे को और अधिक खराब कर दिया। उन्होंने धारा 6क को निरस्त करने की सिफारिश की, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि न्यायालय के निर्णय से पहले दी गई नागरिकता बरकरार रहेगी, तथापि, गैर-मान्यता प्राप्त व्यक्तियों को अवैध माना जाएगा।

निष्कर्ष

नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 6क, प्रवासन और नागरिकता के मामले में असम के सामने आने वाली विशिष्ट चुनौतियों का समाधान करने में एक महत्वपूर्ण उपबंध रही है। हालांकि, इसके कार्यान्वयन ने कुछ वैधानिक और संवैधानिक मुद्दे उठाए हैं।

अतः, प्रवासियों के अधिकारों और राष्ट्रीय सुरक्षा तथा जनसांख्यिकीय अखंडता की संरक्षा की आवश्यकता के बीच संतुलन बनाने में धारा 6क की व्याख्या करने में उच्चतम न्यायालय की भूमिका महत्वपूर्ण रही है।

जैसे-जैसे एनआरसी में अद्यतन की प्रक्रिया जारी है और प्रवासन तथा नागरिकता के बारे में बहस बढ़ रही है, न्याय सुनिश्चित करने में उच्चतम न्यायालय की महत्वपूर्ण भूमिका बनी रहेगी।

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