25 जुलाई, 2024 को भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में उच्चतम न्यायालय की नौ न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने एक ऐतिहासिक निर्णय सुनाया। इस निर्णय में पीठ ने 8:1 के बहुमत से स्पष्ट रूप से कहा कि 1957 के खान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम (एमएमडीआरए) के प्रभाव में रहने के बावजूद राज्य विधान सभाओं को खनन भूमि और खदानों पर कर लगाने का पूर्ण अधिकार है। पीठ में शामिल अन्य न्यायाधीशों में न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय, अभय एस. ओका, जे. बी. पारदीवाला, मनोज मिश्रा, उज्ज्वल भुयान, सतीश चंद्र शर्मा, बी. वी. नागरत्ना और ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह शामिल थे।
यह निर्णय संघीय शासन के मूल सिद्धांतों को दर्शाते हुए, राज्यों को केंद्र सरकार की सीमाओं से मुक्त करता है। यह निर्णय विभिन्न राज्य सरकारों, खनन कंपनियों और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों द्वारा दायर 86 अपीलों के जवाब में दिया गया। यह मामला पिछले 25 वर्षों से लंबित था, जिसका समाधान उच्चतम न्यायालय ने 8:1 के बहुमत से एक ऐतिहासिक निर्णय देकर किया। इस फैसले में बहुमत की राय तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड़ ने प्रस्तुत की, जबकि न्यायमूर्ति बी. वी. नागरत्ना ने इससे असहमति जताते हुए अलग मत दिया।
पृष्ठभूमि
एमएमडीआर अधिनियम, 1957 की धारा 9 के अनुसार, यदि कोई खनन पट्टे का धारक भूमि से खनिज निकालता है, तो उसे रॉयल्टी का भुगतान उस व्यक्ति या निगम को करना अनिवार्य है, जिसने उसे वह भूमि पट्टे पर दी है। इस मामले में मुख्य मुद्दा यह था कि क्या 1957 के अधिनियम के अंतर्गत पट्टाधारकों द्वारा राज्य सरकारों को दी जाने वाली रॉयल्टी को ‘कर’ की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। इसके अलावा, न्यायालय को यह भी निर्णय लेना था कि क्या केंद्र सरकार के पास ऐसे शुल्क लगाने का अधिकार है, या फिर राज्यों को अपने अधिकार क्षेत्र में इन शुल्कों को लगाने का विशेष और स्वतंत्र अधिकार प्राप्त है।
यह मामला इंडिया सीमेंट लिमिटेड द्वारा तमिलनाडु सरकार से राज्य में खनन पट्टा प्राप्त करने के पश्चात उत्पन्न हुए विवाद से शुरू हुआ। हालांकि इंडिया सीमेंट पहले से ही रॉयल्टी का भुगतान कर रहा था, लेकिन सरकार ने एक उपकर (सेस) लगा दिया—जो भूमि राजस्व, जिसमें रॉयल्टी भी शामिल है, पर एक अतिरिक्त कर था। कंपनी ने इस निर्णय को मद्रास उच्च न्यायालय में चुनौती दी और यह तर्क दिया कि रॉयल्टी पर लगाया गया उपकर वास्तव में रॉयल्टी पर कर लगाने के समान है, जो राज्य की विधायी अधिकारिता से बाहर है। 1989 में, भारत के उच्चतम न्यायालय की सात न्यायाधीशों की पीठ ने इंडिया सीमेंट लिमिटेड बनाम तमिलनाडु राज्य मामले में इंडिया सीमेंट के पक्ष में फैसला सुनाया, जिसमें यह तर्क दिया गया था कि राज्य सरकारें केवल रॉयल्टी वसूल सकती हैं, किंतु खनन गतिविधियों पर कर नहीं लगा सकतीं। न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि संघ सूची की प्रविष्टि 54 के अंतर्गत "खानों और खनिजों के विकास एवं उनके विनियमन" पर केंद्र सरकार का सर्वोच्च अधिकार है, जैसा कि 1957 के अधिनियम में वर्णित है। इसी कारण, राज्यों के पास इस विषय में कोई अतिरिक्त कर लगाने का अधिकार नहीं है।
2004 में, पांच न्यायाधीशों की एक पीठ ने, पश्चिम बंगाल और केसोराम इंडस्ट्रीज लिमिटेड के बीच एक समान विवाद की सुनवाई करते हुए निष्कर्ष निकाला कि इंडिया सीमेंट मामले के निर्णय में मुद्रण संबंधी एक त्रुटि (टाइपोग्राफिकल एरर) थी। पीठ ने कहा कि वाक्यांश “रॉयल्टी एक कर है” को “रॉयल्टी पर लगाया गया उपकर (सेस) एक कर है” के रूप में पढ़ा जाना चाहिए। चूंकि यह पीठ इंडिया सीमेंट मामले की पीठ से छोटी थी, इसलिए इसके पास पूर्ववर्ती निर्णय को निरस्त या संशोधित करने का अधिकार नहीं था।
वर्ष 2011 में, पूर्व मुख्य न्यायाधीश एस.एच. कपाड़िया की अध्यक्षता में तीन न्यायाधीशों की पीठ ने खनिजयुक्त भूमि से प्राप्त होने वाले राजस्व पर उपकर लगाने से संबंधित बिहार सरकार के कानून को दी गई चुनौती की सुनवाई करते हुए केसोराम इंडस्ट्रीज और इंडिया सीमेंट मामलों में दिए गए विरोधाभासी पूर्व न्यायिक निर्णयों को स्वीकार किया। कानूनी अनिश्चितता का हल निकालने के लिए, पीठ ने अंतिम निर्णय के लिए इस मामले को नौ न्यायाधीशों की पीठ के पास भेजा।
फैसले से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बिंदु
रॉयल्टी और कर के बीच अंतर: 200 पृष्ठों के फैसले में बहुमत द्वारा रॉयल्टी और कर के बीच अंतर को स्पष्ट किया गया। इसने रॉयल्टी को खनन पट्टाधारक द्वारा पट्टेदार (जो एक निजी संस्था हो सकती है) को खनिजों के निष्कर्षण के अधिकार के बदले में किया जाने वाला “अनुबंधात्मक भुगतान” बताया। इसके विपरीत, कर को “संप्रभु प्राधिकरण द्वारा लगाया गया दायित्व” के रूप में परिभाषित किया गया। न्यायाधीशों ने इस बात पर जोर दिया कि कर कानून द्वारा स्थापित किए जाते हैं और केवल लोक प्राधिकरणों द्वारा ही लगाए जा सकते हैं, ताकि जनकल्याणकारी योजनाओं और सार्वजनिक सेवाओं के लिए धन जुटाया जा सके। दूसरी ओर, रॉयल्टी का भुगतान पट्टाधारक को खनिजों पर अपने विशेष अधिकार को त्यागने के बदले में किया जाता है।
खनिज अधिकारों पर कर: संविधान की सातवीं अनुसूची के अंतर्गत राज्य सूची की प्रविष्टि 50 राज्यों को “खनिज अधिकारों पर कर” लगाने के संबंध में कानून बनाने के विशेष अधिकार प्रदान करती है; हालांकि, यह अधिकार खनिज विकास के संबंध में संसद द्वारा बनाए गए किसी भी कानून द्वारा लगाई गई सीमाओं के अधीन है। इसके विपरीत, संघ सूची की प्रविष्टि 54 केंद्र सरकार को “खानों और खनिजों के विकास” को विनियमित करने का अधिकार देती है, विशेषकर जब संसद इसे लोकहित के लिए आवश्यक समझे। कार्यवाही के दौरान, केंद्र सरकार ने तर्क दिया कि राज्य सूची की प्रविष्टि 50 संसद को यह अनुमति देती है कि वह खनिज विकास से संबंधित कानूनों, जैसे कि 1957 का अधिनियम, के माध्यम से खनिज अधिकारों पर लगाए जाने वाले करों पर “किसी भी प्रकार की सीमाएं” निर्धारित कर सकती है।
हालांकि, बहुमत ने यह तर्कसंगत माना कि चूंकि रॉयल्टी को कर के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता, इसलिए वे राज्य सूची की प्रविष्टि 50 में उल्लिखित “खनिज अधिकारों पर कर” की श्रेणी में नहीं आते। परिणामस्वरूप, न्यायालय ने निर्णय दिया कि 1957 का अधिनियम राज्यों को केवल रॉयल्टी के माध्यम से अतिरिक्त राजस्व प्राप्त करने का स्रोत प्रदान करता है, तथा प्रविष्टि 50 के अंतर्गत खनिज अधिकारों पर कर लगाने की उनकी शक्ति को सीमित नहीं करता।
यद्यपि केंद्र सरकार को संघ सूची की प्रविष्टि 54 के तहत खनन विकास को विनियमित करने का अधिकार प्राप्त है, लेकिन न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह अधिकार कर लगाने तक विस्तारित नहीं है, क्योंकि कर लगाने का अधिकार केवल राज्य विधान-मंडल के अधिकार क्षेत्र में आता है। हालांकि, न्यायालय ने कहा कि यह अधिकार “किसी भी प्रकार की सीमाओं” के अधीन है, जो संसद द्वारा निर्धारित की जा सकती हैं, और इसमें कर लगाने पर “कोई भी प्रतिबंध” भी शामिल हो सकता है। इसका अर्थ यह है कि यदि केंद्र सरकार राज्यों के कर लगाने के अधिकार को समाप्त करने के लिए 1957 के अधिनियम के तहत मौजूदा विधायी ढांचे में बदलाव करना चाहती है, तो उसके पास ऐसा करने की क्षमता है।
बहुमत ने आगे फैसला दिया कि राज्यों को उस भूमि पर कर लगाने का अधिकार है जहां खदानें और खान स्थित हैं, जो कि राज्य सूची की प्रविष्टि 49 (भूमि और भवनों पर कर) सहित अनुच्छेद 246 पर आधारित है। मुख्य न्यायाधीश ने कहा, "दूसरे शब्दों में, खनिजयुक्त भूमि भी सूची 2 की प्रविष्टि 49 के अंतर्गत भूमि के विवरण में आती है", उन्होंने कहा कि भूमि की उपज से प्राप्त आय को कराधान के आधार के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।
मुख्य न्यायाधीश द्वारा बहुमत की राय: "भारतीय संघवाद को असममित (विषम) के रूप में परिभाषित किया जाता है क्योंकि यह केंद्र की ओर झुका हुआ है, जिससे एक मजबूत केंद्रीय सरकार बनती है। फिर भी, इसका तात्पर्य यह नहीं है कि इसके कारण राज्य सरकारें कमजोर हुई हैं। भारतीय राज्यों को उन्हें सौंपे गए विधायी अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत संप्रभुता प्राप्त है। संघीय शासन प्रणाली में प्रत्येक संघीय इकाई को अपने मूल संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वहन एक निश्चित सीमा तक स्वतंत्रता के साथ करने में सक्षम होना चाहिए। संविधान की व्याख्या इस तरह से की जानी चाहिए जिससे हमारे संवैधानिक ढांचे की संघीय विशेषता कमजोर न हो। संवैधानिक न्यायालय का प्रयास यह सुनिश्चित करना होना चाहिए कि राज्य विधान-मंडल विशेष रूप से उनके लिए आरक्षित क्षेत्रों में संघ के अधीन न हों।”
न्यायमूर्ति नागरत्ना की असहमति: असहमति जताते हुए न्यायमूर्ति नागरत्ना ने तर्क दिया कि 1957 के अधिनियम के तहत दी जाने वाली रॉयल्टी को देश के खनिज संसाधनों के विकास के उद्देश्य से लगाए गए एक कर के रूप में माना जाना चाहिए। उन्होंने आगे कहा कि 1957 के अधिनियम जैसे केंद्रीय कानून, खनिज विकास को बढ़ावा देने के लिए बनाए गए थे तथा राज्यों को रॉयल्टी के अलावा, अतिरिक्त शुल्क और उपकर लगाने की अनुमति देने से यह उद्देश्य काफी कमजोर हो सकता है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि 1957 के अधिनियम के पारित होने के फलस्वरूप, केंद्र को खनिज विकास पर मिले पूर्ण नियंत्रण ने राज्यों के कर लगाने की शक्ति को प्रभावी रूप से समाप्त कर दिया, तथा राज्यों को केवल रॉयल्टी के माध्यम से राजस्व अर्जित करने तक सीमित कर दिया।
राज्यों को खनिज पर कर लगाने का अधिकार देने के संभावित परिणामों की व्याख्या करते हुए, न्यायाधीश ने इस बात पर जोर दिया कि इससे अतिरिक्त राजस्व उत्पन्न करने की होड़ में राज्यों के बीच “अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा” में वृद्धि हो सकती है। उन्होंने चेतावनी दी कि इससे खनिजों की कीमतों में तीव्र, असंगठित और असमान वृद्धि हो सकती है। उन्होंने आगाह किया कि ऐसी स्थिति राष्ट्रीय बाजार में मुनाफाखोरी के लिए अवसर पैदा कर सकती है, जहां मूल्य निर्धारण की विसंगतियों का लाभ उठाने के लिए शोषण किया जा सकता है, जो अंततः बाजार को अस्थिर कर सकता है।
निर्णय को भूतलक्षी या भविष्यलक्षी रूप से लागू करने पर जोर: केंद्र सरकार ने, खनन कंपनियों के एक समूह के समर्थन से, यह तर्क दिया कि किसी प्रकार की भ्रम की स्थिति, कानूनी चुनौतियों और प्रशासनिक जटिलताओं से बचने के लिए इस निर्णय को भविष्यलक्षी रूप से लागू किया जाना चाहिए। इसके विपरीत, झारखंड सरकार ने इस निर्णय को भूतलक्षी रूप से लागू करने पर जोर दिया। परिणामस्वरूप, 31 जुलाई, 2024 को इस मुद्दे का विनिश्चय करने के लिए सुनवाई की गई कि 25 जुलाई, 2024 के निर्णय को भूतलक्षी रूप से लागू किया जाए या भविष्यलक्षी रूप से।
31 जुलाई, 2024 को सुनवाई के दौरान, केंद्र का प्रतिनिधित्व करते हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने इस फैसले के संभावित आर्थिक परिणामों पर जोर देते हुए कहा कि बिजली उत्पादन जैसे उद्योगों के लिए खनिज विकास महत्वपूर्ण है, जो कोयले पर बहुत अधिक निर्भर है। उन्होंने चिंता व्यक्त की कि इस फैसले को भूतलक्षी रूप से लागू करने से विभिन्न क्षेत्रों में कीमतों में वृद्धि की एक श्रृंखला शुरू हो सकती है, जो अंततः उपभोक्ताओं पर बोझ डालेगी।
पीठ ने सॉलिसिटर जनरल के सुझाव को संभावित मध्यमार्ग के रूप में माना: राज्यों को न तो भूतलक्षी रूप से शुल्क लागू करने चाहिए, और न ही पुरानी व्यवस्था के तहत पहले ही भुगतान कर चुकी संस्थाओं को धनवापसी की मांग करनी चाहिए।
वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी, जो झारखंड राज्य का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, ने निर्णय को भविष्यलक्षी रूप से लागू किए जाने का विरोध किया। उन्होंने तर्क दिया कि ऐसा करना न्यायालय द्वारा अनुमोदित राज्य कानूनों की वैधता को कमजोर करेगा। उन्होंने उद्योगों पर वित्तीय बोझ को संतुलित करने के लिए ब्याज घटक को चरणबद्ध तरीके से लागू करने या समायोजित करने के महत्व पर बल देने के साथ ही, यह भी सुनिश्चित किया कि राज्यों को उनका वैध संदेय भुगतान प्राप्त हो सके।
सुनवाई के बाद, 14 अगस्त, 2024 को उच्चतम न्यायालय ने अपना अंतिम फैसला सुनाया, जिसमें राज्यों को 1 अप्रैल, 2005 के बाद से केंद्र सरकार और खनन कंपनियों से खनिज युक्त भूमि पर रॉयल्टी के बकाया भुगतान की वसूली की अनुमति दी गई। उच्चतम न्यायालय ने 25 जुलाई, 2024 के अपने निर्णय को भविष्यलक्षी प्रभाव देने के लिए केंद्र सरकार के अनुरोध को खारिज कर दिया, जिसमें राज्यों के खनिज अधिकारों और खनिजयुक्त भूमि पर कर लगाने की शक्ति को स्वीकार किया गया था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि राज्य 1 अप्रैल, 2005 से रॉयल्टी भुगतान की वापसी की मांग कर सकते हैं। हालांकि, पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि पिछली देनदारियों के भुगतान पर कुछ शर्तें लागू होंगी।
पीठ ने कहा कि केंद्र और खनन कंपनियों द्वारा खनिज संपन्न राज्यों को बकाया राशि का भुगतान अगले 12 वर्षों में चरणबद्ध तरीके से किया जा सकता है। हालांकि, न्यायालय ने राज्यों को बकाया भुगतान पर कोई भी जुर्माना लगाने से रोक दिया। यह निर्णय खनिज संसाधनों से समृद्ध राज्यों जैसे झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के लिए एक बड़ी सौगात है।
एक महत्वपूर्ण स्पष्टीकरण में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि उसका फैसला तेल क्षेत्रों, खनिज तेल संसाधनों, पेट्रोलियम और पेट्रोलियम उत्पादों पर लागू नहीं होगा। केंद्र सरकार ने तर्क दिया कि इन याचिकाओं में केंद्र सरकार की इन परिसंपत्तियों पर विशेष अधिकारिता, जैसा कि सातवीं अनुसूची की सूची 1 की प्रविष्टि 53 में उल्लिखित है, को चुनौती नहीं दी गई है।
निष्कर्ष
उच्चतम न्यायालय का निर्णय भारत के संघीय ढांचे को मजबूत करता है, क्योंकि इसमें खननयुक्त भूमि पर कर लगाने के राज्यों के अधिकारों की पुष्टि की गई है। यह निर्णय न केवल संघ और राज्यों के बीच कर लगाने की शक्तियों के संवैधानिक विभाजन को स्पष्ट करता है, बल्कि खनिज संसाधनों से समृद्ध राज्यों की वित्तीय स्वायत्तता को भी बढ़ाता है।
इसके अतिरिक्त, इस निर्णय का भूतलक्षी प्रभाव, जो 2005 से लागू होता है, राज्यों को खोए हुए राजस्व की वसूली करने का पर्याप्त अवसर प्रदान करता है, जिससे दशकों से चले आ रहे वित्तीय असंतुलन को संभवतः ठीक किया जा सकता है।
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