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राष्ट्रीय जल नीति 2012 भाग - 2

11. जल आपूर्ति एवं स्वच्छता

शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्रों में जल आपूर्ति के निर्धारण के बीच अधिक असमानता को हटाने की आवश्यकता है। शहरी घरेलू जल प्रणालियों में जल लेखा-जोखा का संग्रहण करके जल लेखा परीक्षा रिपोर्टें प्रकाशित करने तथा जल के रिसाव और चोरी को दर्शाते हुए जल-लेखा परीक्षा रिपोर्टों को तैयार करने की आवश्यकता है जिन्हें सामाजिक मुद्दों पर विधिवत ध्यान देते हुए कम किया जा सकता है। शहरी और औद्योगिक क्षेत्रों में उपयोज्य जल की उपलब्धता में वृद्धि करने हेतु जहां तकनीकी आर्थिक रूप से व्यवहार्य हो, वर्षा जल संचयन तथा अलवणीकरण किए जाने को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। वर्षा जल संचयन के कार्यान्वयन में जल भूविज्ञान, भूजल संदूषण, प्रदूषण एवं झरनों से होने वाले निस्सरण जैसे मानकों की वैज्ञानिक निगरानी शामिल की जानी चाहिए। जल की कमी वाले क्षेत्रों में उद्योगों को या तो कम जल से काम चलाने या फिर बहिःस्राव से उपचारित जल को जल विज्ञान प्रणाली को विशिष्ट मानक के अनुसार वापस करने का दायित्व अपनाना चाहिए। संयंत्र में उपचार न करके जल का अनावश्यक उपयोग करने अथवा भूमि जल को प्रदूषित करने की प्रवृत्तियों को रोकने की आवश्यकता है।

औद्योगिक प्रदूषकों को रोकने तथा जल के पुनःचक्रण/पुनःउपयोग को बढ़ावा देने के लिए सब्सिडी और नकद प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए, जो अन्यथा पूंजीगत होती हैं।

12. संस्थागत व्यवस्थाएं

पक्षकार राज्यों के बीच जल से संबंधित मुद्दों पर विचार-विमर्श करने तथा मतैक्य बनाने, सहयोग और सुलह करने हेतु राष्ट्रीय स्तर पर एक मंच होना चाहिए। प्रत्येक राज्य में जल के विभिन्न प्रयोक्ताओं की जल की प्रतिस्पर्धी मांगों संबंधी मतभेदों तथा राज्य के विभिन्न भागों के बीच के विवादों का भी सौहार्दपूर्ण समाधान करने के लिए इसी तरह का तंत्र स्थापित किया जाना चाहिए।

विवादों का सम्यक तरीके से तीव्र समाधान करने के लिए केंद्र में एक स्थायी जल विवाद अधिकरण स्थापित किया जाना चाहिए। जल संसाधन परियोजनाओं एवं सेवाओं का प्रबंधन सामुदायिक सहभागिता से किया जाना चाहिए। जहां भी राज्य सरकारें अथवा स्थानीय शासी निकाय ऐसा निर्णय लें वहां निजी क्षेत्र को असफलता के लिए जुर्माने सहित सेवा प्रदान करने की सहमत शर्तों को पूरा करने हेतु सार्वजनिक निजी सहभागिता में एक सेवा प्रदाता बनने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। नदी बेसिन/उप बेसिन को एकक के रूप में लेते हुए समेकित जल संसाधन प्रबंधन (आईडब्ल्यूआरएम) करना जल संसाधनों की आयोजना, विकास और प्रबंधन का मुख्य सिद्धांत होना चाहिए। केंद्र/राज्य सरकार स्तरों के विभागों/संगठनों का पुनर्गठन किया जाना चाहिए और तद्नुसार इन्हें बहु-विषयक बनाया जाना चाहिए। वर्षा, नदी प्रवाहों, फसल एवं स्रोत द्वारा सिंचित क्षेत्र, सतही और भूमि जल दोनों के विभिन्न प्रयोगों के लिए उपयोगिता के संबंध में नियमित आधार पर समग्र आंकड़ों का संग्रहण करके सूचीबद्ध करने के लिए प्रत्येक नदी बेसिन का उपयोग किया जाए।

13. सीमा पार की नदियां

अंतरराष्ट्रीय नदियों के जल के बंटवारे और प्रबंधन हेतु सर्वोपरि राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए तटवर्ती राज्यों के परामर्श से द्विपक्षीय आधार पर विचार-विमर्श किया जाना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय समझौतों को लागू करने के लिए केंद्र में पर्याप्त संस्थागत व्यवस्था की जानी चाहिए।

14. डाटाबेस एवं सूचना प्रणाली

संपूर्ण देश से नियमित रूप से जलविज्ञानीय आंकड़ों का संग्रहण, सूचीबद्ध करने और संसाधित/प्रक्रमित करने के लिए एक राष्ट्रीय जल सूचना केंद्र स्थापित करना चाहिए तथा इनका प्रारंभिक संसाधन/प्रक्रमण करना चाहिए, और जीआईएस प्लेटफॉर्म पर खुले और पारदर्शी तरीके से रखरखाव किया जाना चाहिए। संभावित जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए हिम और ग्लेशियरों, वाष्पीकरण, लहरदार जलविज्ञान तथा जलविज्ञानी अध्ययन, नदी ज्यामितिक परिवर्तनों, कटाव, अवसादन इत्यादि के संबंध में अति विस्तृत आंकड़ों का संग्रहण करने की आवश्यकता है। ऐसे आंकड़ों के संग्रहण के कार्यक्रम को विकसित और कार्यान्वित करने की आवश्यकता है।

15. अनुसंधान एवं प्रशिक्षण आवश्यकता

जल क्षेत्र के मुद्दों का वैज्ञानिक पद्धति से समाधान करने के लिए निरंतर अनुसंधान और प्रौद्योगिकी की प्रगति को अवश्य बढ़ावा दिया जाएगा। राज्यों को प्रौद्योगिकी, अभिकल्प पद्धतियों, आयोजना और प्रबंधन पद्धतियों का अद्यतन करने, स्थान और बेसिन हेतु वार्षिक जल मापनों और लेखों को तैयार करने, जल प्रणालियों हेतु जलविज्ञानीय मापनों को तैयार करने तथा बैचमार्किंग और निष्पादन मूल्यांकन करने हेतु पर्याप्त अनुदान दिया जाना आवश्यक है। जल संसाधन के बदलते परिदृश्य हेतु नीति निर्णयों के प्रभावों का मूल्यांकन करने तथा नीति निर्देशों को विकसित करने के लिए जल नीति में अनुसंधान हेतु एक स्वायत्त केंद्र की भी स्थापना की जानी चाहिए।

16. राष्ट्रीय जल नीति का कार्यान्वयन

राष्ट्रीय जल बोर्ड को राष्ट्रीय जल नीति के कार्यान्वयन की नियमित निगरानी के लिए राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद् द्वारा अनुमोदित राष्ट्रीय जल नीति के आधार पर एक कार्य योजना तैयार करनी चाहिए।


जल प्रबंधन के प्रयास

भारत में विश्व की जनसंख्या का 17.7 प्रतिशत, विश्व के क्षेत्रफल का 2.4 प्रतिशत और विश्व के पेयजल संसाधनों का 4 प्रतिशत मौजूद है। भारत को प्रतिवर्ष औसतन 4,000 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) जल ज्यादातर वर्षा और बर्फबारी से प्राप्त होता है। हालांकि, वर्षा के वितरण में काफी स्थानिक और कालिक (टेंपोरल) भिन्नताएं देखने को मिलती हैं। 4,000 बीसीएम जल में से उपलब्ध जल संसाधन लगभग 1,869 बीसीएम हैं। इसमें से केवल 1,123 बीसीएम (सतही जल संसाधनों से 690 बीसीएम और भूजल से 433 बीसीएम) प्रयोज्य (उपयोग करने योग्य) जल संसाधन हैं। वर्ष 2000 में जल की मांग 634 बीसीएम थी, जिसका 2025 तक 1,093 बीसीएम तक बढ़ना अपेक्षित है। इसलिए, जल की प्रयोज्य मात्रा को बढ़ाने, तथा संरक्षण, दक्षता में सुधार और आपूर्ति स्रोतों में वृद्धि करके मांग को प्रबंधित करने के प्रयास किए जाने की आवश्यकता है।

जल, राज्य सरकार के अधीन आने वाला विषय है। इस प्रकार, राज्य सरकार जल संसाधनों के संवर्धन, संरक्षण और कुशल प्रबंधन के लिए कदम उठाती है। केंद्र सरकार राज्यों के प्रयासों को पूरा करने के लिए तकनीकी और वित्तीय सहायता प्रदान करती है। केंद्र विभिन्न योजनाओं और कार्यक्रमों के माध्यम से ऐसा करती है, जिनमें से कुछ की चर्चा नीचे की गई है:

जल जीवन मिशन (हर घर जल) केंद्र और राज्यों के बीच एक साझेदारी कार्यक्रम है, जिसका उद्देश्य 2024 तक नल-जल कनेक्शन (संयोजन) द्वारा प्रत्येक ग्रामीण परिवार को नियमित और दीर्घकालिक आधार पर पर्याप्त मात्रा में निर्धारित गुणवत्ता वाला पीने योग्य जल उपलब्ध कराना है। पेयजल आपूर्ति योजनाओं के लिए जल स्रोतों के साथ-साथ भूजल, सतही जल और छोटी टंकियों में संग्रहित वर्षा जल शामिल हैं।

अमृत (अटल नवीकरण और शहरी परिवर्तन मिशन) वर्ष 2015 में शुरू किया गया एक जल-केंद्रित राष्ट्रीय शहरी मिशन है, जिसका उद्देश्य पांच वर्षों में 500 मिशन (अभियान केंद्रित) शहरों में जल आपूर्ति का सार्वभौमिक कवरेज (आवृत्त क्षेत्र) प्राप्त करना था, जिसे पूरा होने वाली परियोजनाओं के लिए मार्च 2023 तक के लिए बढ़ा दिया गया। मिशन उन 500 शहरों को शामिल करता है जिनमें सभी शहरों और कस्बों में अधिसूचित नगरपालिकाओं सहित एक लाख से अधिक आबादी है। अक्टूबर 2021 में, 500 शहरों की तुलना में सभी वैधानिक कस्बों को पांच वर्षों अर्थात 2021-22 से 2025-26 तक जल आपूर्ति करने के प्रयोजन से अमृत 2.0 शुरू किया गया था। इसका जोर शहरों को आत्मनिर्भर और जल को सुरक्षित बनाने पर है। अमृत 2.0 का उद्देश्य प्रत्येक शहर के लिए सिटी वॉटर बैलेंस प्लान के विकास के माध्यम से जल की चक्रीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देना है, जो उपचारित वाहित मल (सीवेज) के पुनर्चक्रण/पुनः उपयोग, जल निकायों के कायाकल्प और जल संरक्षण पर केंद्रित है।

केंद्रीय भूमि जल बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी) द्वारा चुनिंदा आकांक्षी जिलों में कृत्रिम पुनर्भरण का कार्य (आर्टिफिशियल रिचार्ज वर्क) किया गया है। भूजल पुनर्भरण को बढ़ाने के लिए उपयुक्त स्थानों पर धाराओं में बहने वाले जल का संचयन करने हेतु उचित संरचनाओं, जैसे रोधी बांधों (चेक डैम), अंतःस्रवण टैंकों, उपसतह रोधकों, पुनर्भरण कुओं और पुनर्भरण शाफ्ट (कूपक) का निर्माण किया गया था। इस बोर्ड ने 12वीं योजना के दौरान जलभृत मानचित्रण और प्रबंधन कार्यक्रम लागू किया था।

वर्ष 2019 में राष्ट्रीय जल मिशन के तहत शुरू किए गए सही फसल अभियान का उद्देश्य जल की कमी वाले क्षेत्रों में किसानों को ऐसी फसलें उगाने के लिए समझाना है जो जल गहन नहीं होतीं, लेकिन जल का उपयोग कुशलता से करती हैं, भले ही वे आर्थिक रूप से व्यवहार्य हों। इस उद्देश्य के लिए जल की कमी वाले क्षेत्रों में कार्यशालाओं की एक शृंखला आयोजित की गई।

जल शक्ति अभियान जल संरक्षण और जल सुरक्षा के लिए जल शक्ति मंत्रालय द्वारा शुरू किया गया एक अभियान है। 2019 में शुरू किए गए पहले चरण में देश के जल की कमी वाले 256 जिलों को सम्मिलित किया गया। जल संरक्षण और जल संसाधन प्रबंधन को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार के अधिकारियों, भूजल विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों ने इन क्षेत्रों में राज्य और जिला अधिकारियों के साथ काम किया। इस अभियान का केंद्रबिंदु पांच लक्षित हस्तक्षेपों पर थाः (i) जल संरक्षण और वर्षा जल संचयन; (ii) पारंपरिक और अन्य जल निकायों/टैंकों का नवीनीकरण; (iii) बोरवेल का पुनःउपयोग और पुनर्भरण; (iv) जलसंभर विकास; तथा (v) तीव्र वनीकरण।

जल शक्ति अभियान के दूसरे चरण, कैच द रेन, को मार्च 2021 में शुरू किया गया, जिसकी टैगलाइन थी ‘‘कैच द रेन, वेयर इट फॉल्स, वेन इट फॉल्स’’, अर्थात जहां और जब भी वर्षा हो, उसके जल का संचय करो। इसका उद्देश्य राज्यों और सभी हितधारकों को वर्षा के मौसम की शुरुआत से पहले जलवायु परिस्थितियों और उप-मृदा स्तर के लिए उपयुक्त वर्षा जल संचयन हेतु संरचना बनाने के लिए प्रेरित करना है ताकि वर्षा के जल को संग्रहित किया जा सके। कार्यक्रम के हिस्से के रूप में लोगों की सक्रिय भागीदारी की परिकल्पना की गई है। यह कार्यक्रम देश के सभी जिलों (ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों) के लिए है।

जल शक्ति अभियान का तृतीय चरणः कैच द रेन-2022 को 29 मार्च, 2022 से 30 नवंबर, 2022 के बीच संपूर्ण देश में सभी जिलों (ग्रामीण और शहरी) के सभी ब्लॉकों (खंडों) को शामिल करने हेतु 3 मार्च, 2022 को शुरू किया गया।

सरकार द्वारा एक नीति बनाई गई है जिसके तहत पारिस्थितिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए नदी के प्रवाह के एक भाग को अलग रखा जाएगा। इसे अमल में लाने के लिए, 2018 में, सरकार ने जोर देकर कहा कि पूरे वर्ष गंगा में न्यूनतम जल स्तर बनाए रखा जाना चाहिए, इसलिए जलविद्युत परियोजनाओं को एक सीमा से अधिक जल जमा करने से बचना होगा। साथ ही, घरों तक आसान पहुंच सुनिश्चित करने हेतु सभी नागरिकों को स्वास्थ्य और स्वच्छता के लिए आवश्यक पेयजल की न्यूनतम मात्रा उपलब्ध कराई जानी थी।

2020 में एक नीतिगत बदलाव के तहत, सरकार ने भूजल निष्कर्षण करने वाले उद्योगों के लिए नए नियम बनाए, जिसके अनुसार ‘‘कोई नया प्रमुख उद्योग नहीं’’ होगा, जिसे अति-दोहित आकलन ब्लॉकों में भूजल निष्कर्षित करने के लिए अनापत्ति प्रमाण-पत्र दिया जाएगा।

मसौदा राष्ट्रीय जल नीति 2020

जल शक्ति मंत्रालय ने 5 नवंबर, 2019 को एक नई राष्ट्रीय जल नीति (एनडब्ल्यूपी) का मसौदा तैयार करने के लिए एक समिति का गठन किया। मुख्य रूप से उपलब्ध तकनीकी नवाचारों को ध्यान में रखते हुए बेहतर प्रबंधन, जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ते खतरे और नदी के प्रवाह को बनाए रखने और प्रदूषण को नियंत्रित करने की आवश्यकता के प्रति जागरूकता के लिए एक नई जल नीति को आवश्यक माना गया।

यद्यपि 1987, 2002 और 2012 के पहले एनडब्ल्यूपी को पूरी तरह से सरकारी व्यवस्था के अंतर्गत तैयार किया गया था, तथापि इस बार सरकार ने नीति का मसौदा तैयार करने के लिए स्वतंत्र विशेषज्ञों की एक समिति गठित करने का निर्णय लिया। इस 11 सदस्यीय समिति की अध्यक्षता योजना आयोग के पूर्व सदस्य और जल विशेषज्ञ मिहिर शाह ने की थी। इसने विशेषज्ञों, शिक्षाविदों, चिकित्सकों और हितधारकों के कई निवेदनों को सुना और उन्हें स्वीकार किया, जिसमें 21 राज्यों और 5 केंद्र-शासित प्रदेशों की सरकारों के निवेदन और भारत सरकार के विभागों और मंत्रालयों की 35 प्रस्तुतियां और निवेदिताएं शामिल थीं। इस समिति ने अपना मसौदा दिसंबर 2020 में जल शक्ति मंत्रालय को प्रस्तुत किया था।

मसौदे के प्रस्ताव

मांग और आपूर्ति पर अनुशंसाएं: समिति के अध्यक्ष मिहिर शाह के अनुसार मसौदे में दो प्रमुख अनुशंसाएं हैं।

i. जल आपूर्ति बढ़ाने से ध्यान हटाकर मांग-प्रबंधन उपायों पर ध्यान केंद्रित करें। इसमें मुख्य रूप से निम्नलिखित शामिल हैं: l क्षेत्रीय कृषि-पारिस्थितिकी के अनुरूप जल की कम खपत वाली फसलों को शामिल करने के लिए फसल पैटर्न (स्वरूप) में विविधता लाएं। भारत में लगभग 80-90 प्रतिशत जल की खपत सिंचाई में की जाती है, जिसमें से अधिकांश चावल, गेहूं और गन्ने की खेती में प्रयुक्त होता है।

  • पोषक अनाज, दलहन और तिलहन को शामिल करने के लिए सार्वजनिक खरीद कार्यों में विविधता लाने से किसानों को अपने फसल पैटर्न में परिवर्तन लाने और जल संरक्षण के लिए प्रोत्साहन मिलेगा।
  • ताजे जल के उपयोग को कम करके औद्योगिक वॉटर फुटप्रिंट (विश्व में सबसे अधिक) को कम करें। (वॉटर फुटप्रिंट—जल के उपयोग की धारणीयता, दक्षता और समानता का आकलन करता है, तथा फुटप्रिंट को धारणीय बनाने के लिए कौन-सी रणनीतिक कार्रवाइयों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, की पहचान करता है।)
  • पुनर्चक्रित जल की दिशा में कदम बढ़ाएं। शहरों के लिए यह अनिवार्य किया जाना चाहिए कि वे सभी गैर-पीने योग्य उपयोगों जैसे फ्लशिंग, अग्नि सुरक्षा, वाहन धोने, भूनिर्माण, बागवानी आदि के लिए उपचारित अपशिष्ट जल का उपयोग करें। जहां तक संभव हो, विकेंद्रीकृत अपशिष्ट जल प्रबंधन के माध्यम से सीवेज का उपचार और शहरी नदी के हिस्सों की पर्यावरण-पुनर्स्थापना की जानी चाहिए।

ii. आपूर्ति पक्ष पर भी ध्यान केंद्रित करें। यह आवश्यक हो जाता है जैसा कि देश में बड़े बांधों के निर्माण के लिए स्थलों की कमी हो रही है, यहां तक कि जल का स्तर गिर रहा है और कई क्षेत्रों में भूजल की गुणवत्ता खराब हो रही है।

  • बड़े-बड़े बांधों में भारी मात्रा में संग्रहित जल उन किसानों तक नहीं पहुंच रहा है, जिनके लिए इनका निर्माण किया गया है। मांग-आपूर्ति अंतराल को पर्यवेक्षी नियंत्रण और डाटा अधिग्रहण (एससीएडीए) प्रणालियों और दबावयुक्त सूक्ष्म सिंचाई के साथ संयुक्त दबाव वाली बंद परिवहन पाइपलाइनों का कुशल उपयोग कर पूरा किया जा सकता है।
  • जलग्रहण क्षेत्रों के जीर्णोद्धार के माध्यम से जल आपूर्ति पर जोर दिया जाना चाहिए, जिसे पारितंत्र सेवाओं के लिए मुआवजे के माध्यम से प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है, विशेष रूप से ऊर्ध्वप्रवाह (अपस्ट्रीम), अर्थात पर्वतीय, क्षेत्रों में वंचित समुदायों के लिए।
  • जहां और जब भी वर्षा हो, उसके जल का संचय करने के लिए स्थानीय वर्षा जल संचयन पर नए सिरे से जोर देना होगा। इसे ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में पारंपरिक स्थानीय जल निकायों के सीमांकन, अधिसूचना, संरक्षण और पुनरुद्धार के साथ संयोजित किया जाना चाहिए। यह बेहतर जल स्तर और गुणवत्ता के लिए शहरी ब्लू-ग्रीन इन्फ्रास्ट्रक्चर (यह एक ऐसे नेटवर्क को संदर्भित करता है जो लोगों को प्रकृति से जोड़ने के लिए अवसंरचना, पारिस्थितिक जीर्णोद्धार और शहरी अभिकल्प के संयोजन द्वारा शहरी और जलवायु संबंधी चुनौतियों को हल करने के लिए “अवयव” प्रदान करता है।) का हिस्सा बनेगा, साथ ही विशेष रूप से क्यूरेटिड (पेशेवर या विशेषज्ञ ज्ञान का उपयोग करके चयनित, संगठित और प्रस्तुत किया गया) अवसंरचना जैसे बरसात के बाग, बायो-स्वेल्स (भूदृश्य विशेषताएं जो प्रदूषित तूफानी जल अपवाह को एकत्र करती हैं, उसे जमीन में सोख लेती हैं और प्रदूषण का निस्यंदन करती हैं।), आर्द्र शाद्रलों (जहां वे विसर्पण कर सकते हैं) के साथ नदियों का जीर्णोंद्धार, जैव उपचार के लिए आर्द्रभूमियों का निर्माण, शहरी उद्यान, पारगम्य फुटपाथ (पर्मिएबल पेवमेंट्स), धारणीय जल निकासी प्रणाली, ग्रीन रूफ [एक इमारत की छत, जो आंशिक रूप से या पूरी तरह से वनस्पति से ढकी होती है, तथा एक जलरोधक झिल्ली पर विकासात्मक जीवाणुपोष पदार्थ (मिट्टी) से युक्त होता है।] और ग्रीन वाल्स (एक लंबवत निर्मित संरचना, जिसे वनस्पति से ढक दिया जाता है।) से बाढ़ से राहत (फ्लड मिटिगेशन) मिलेगी।
  • भूजल के धारणीय और उचित प्रबंधन पर बहुत ध्यान दिया जाना चाहिए, और इसके लिए सहभागी भूजल प्रबंधन महत्वपूर्ण है। हितधारकों (उनके जलभृतों के नामित संरक्षक होने के लिए) को जलभृत सीमाओं, जल भंडारण क्षमताओं और प्रवाह के बारे में जानकारी प्रदान करके प्रभावी भूजल प्रबंधन प्रोटोकॉल (मसविदा) विकसित करने में मदद की जानी चाहिए।
  • आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए नदियां एक संसाधन हो सकती हैं, लेकिन उनका संरक्षण और पुनरुद्धार करना प्राथमिक आवश्यकता है। इस संदर्भ में, नदियों के अधिकार अधिनियम का मसौदा तैयार करना आवश्यक हो सकता है, जिसमें इनके बहने, विसर्पी होने और समुद्र से मिलने का अधिकार शामिल होगा। नदी के प्रवाह के जीर्णाद्धार में जलग्रहण क्षेत्रों का पुनर्नवीकरण, भूजल निकासी का नियमन, और नदी-तल पम्पिंग (पंप से पानी निकालना) और रेत और शिलाखंडों का खनन शामिल होगा।

मसौदा नीति के अन्य बिंदुः जल के नियमन में सुधार करना होगा, जो ‘हाइड्रो-सिजोफ्रेनिया’से ग्रस्त है। यह हाइड्रो-सिजोफ्रेनिया या अलग से विचार करना कि समग्र रूप से किन बिंदुओं पर पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए, तीन स्तरों पर स्पष्ट हैः सिंचाई और पेयजल; सतही जल और भूजल; तथा जल और अपशिष्ट जल। इन्हें अलग-अलग मानने से समस्याएं उत्पन्न होती हैं और कोई समाधान प्राप्त नहीं होता है।

जल की गुणवत्ता में सुधार और इसे उच्च स्तर पर बनाए रखना होगा। सीवेज के उपचार के लिए अत्याधुनिक, कम लागत वाली, ऊर्जा की कम खपत करने वाली और पर्यावरण के प्रति संवेदनशील प्रौद्योगिकियों को अपनाया जाना चाहिए। उत्क्रम परासरण (आरओ अपशिष्ट उपचार की वह विधि जिसमें किसी अर्धपरागम्य झिल्ली के माध्यम से प्रदूषित जल में से शुद्ध जल को प्राप्त किया जाता है।) के व्यापक उपयोग से जल की भारी बर्बादी हुई है और जल की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है, इसलिए आरओ इकाइयों को ऐसे स्थानों पर हतोत्साहित किया जाना चाहिए जहां जल में घुलित ठोस पदार्थों की कुल संख्या 500 मिलीग्राम/लीटर से कम है।

सरकार को संचालन और रखरखाव लागतों की वसूली में मदद करने के लिए एक श्रेणीबद्ध शुल्क प्रणाली की आवश्यकता है। अपने प्राकृतिक रूप में पाया जाने वाला जल घरेलू नल, सिंचाई नहर या कारखाने में उपलब्ध जल से बहुत अलग होता है। जहां भी और जब भी कोई जल को उपयोगी संसाधन बनाना चाहता है, उसके लिए भौतिक अवसंरचना और प्रबंधन प्रणालियों की आवश्यकता होती है। वाणिज्यिक और विलासितापूर्ण उपयोगों के लिए अधिक शुल्क वसूल कर वित्तीय स्थिरता प्राप्त करने की बजाय किफायती जल सुनिश्चित करने के लिए सेवा शुल्क को बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के अधिकार के रूप में एक सहायक माना जाना चाहिए। आर्थिक सेवाओं (जैसे औद्योगिक और वाणिज्यिक उपयोग) को उच्च दर पर वसूल किया जा सकता है, यहां तक कि सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए रियायती दरें प्रदान की जानी चाहिए। इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि बुनियादी जल सेवाएं निर्धनों के लिए किफायती हों। जल शुल्क निर्धारित करने के लिए एक स्पष्ट अधिदेश के साथ स्वतंत्र जल संसाधन नियामक प्राधिकरणों की स्थापना की जानी चाहिए। एक एकीकृत बहु-अनुशासनात्मक, बहु-हितधारक राष्ट्रीय जल आयोग (NWC) की स्थापना की जानी चाहिए, जो राज्यों के लिए अनुसरण करने हेतु एक आदर्श बन जाएगा।


उठाए गए कदम

केंद्र सरकार के अनुसार, उसने राष्ट्रीय जल नीति 2012 में विनिर्दिष्ट सिद्धांतों के अनुरूप कई कार्रवाई की है। ये निम्नलिखित हैं:

  • अंतर्राज्यिक नदी जल विवाद (संशोधन) विधेयक, 2019 को जुलाई 2019 में लोक सभा में पटल पर रखा गया था और बाद में सदन द्वारा पारित कर दिया गया।
  • जल शक्ति मंत्रालय ने राष्ट्रीय जल रूपरेखा विधेयक, 2016 और नदी बेसिन प्रबंधन विधेयक, 2018 का प्रारूप तैयार किया, जिसे राज्यों और संघ राज्यक्षेत्रों को अपने-अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए भेजा गया।
  • बांध सुरक्षा विधेयक, 2019 तैयार कर लोक सभा में पटल पर रखा गया था और बाद में दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया गया।
  • राष्ट्रीय जल विज्ञान परियोजना के अंतर्गत राष्ट्रीय जल सूचना विज्ञान केंद्र की स्थापना की गई है।
  • केंद्रीय जल आयोग ने अंतरिक्ष से प्राप्त सूचनाओं का उपयोग करते हुए रिअसेसमेंट ऑफ वॉटर अवेएलेबिलिटी इन इंडिया नामक अध्ययन पूरा कर लिया है।
  • केंद्रीय भूमिजल बोर्ड ने 2013 में भारत में भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण के लिए मास्टर प्लान (Master Plan for Artificial Recharge to Ground Water in India) नामक एक संकल्पनात्मक दस्तावेज तैयार किया, जिसमें देश में विभिन्न प्रकार के कृत्रिम पुनर्भरण और वर्षा जल संचयन संरचनाओं के निर्माण की परिकल्पना की गई है।
  • एक वेब-आधारित जल संसाधन सूचना प्रणाली (भारत-डब्ल्यूआरआईएस) स्थापित की गई है और केंद्रीय जल आयोग और केंद्रीय भूमिजल बोर्ड के सभी अवर्गीकृत आंकड़े वेबसाइट पर अपलोड कर दिए गए हैं।

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