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उच्चतम न्यायालय ने निष्क्रिय इच्छा मृत्यु पर दिशानिर्देशों को सरल बनाया

भारत के उच्चतम न्यायालय ने 26 दिसंबर, 2023 को देश में निष्क्रिय इच्छा मृत्यु की प्रक्रिया को बेहद सरल बनाने के लिए एक निर्णय दिया। उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति के.एम. जोसेफ की अध्यक्षता वाले पांच न्यायाधीशों की न्यायपीठ, जिसमें न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी, अनिरुद्ध बोस, ऋषिकेश रॉय और सी.टी. रविकुमार शामिल थे, ने ‘living wills (लिविंग विल)’ के लिए मौजूदा दिशानिर्देशों, जो उच्चतम न्यायालय द्वारा कॉमन कॉज बनाम भारत संघ और एक अन्य  मामले के अपने पूर्ववर्ती निर्णय में निर्धारित किए थे और जिनमें निष्क्रिय इच्छा मृत्यु की अनुमति प्रदान की गई थी, में बदलाव करते हुए यह निर्णय दिया।

इच्छा मृत्यु और लिविंग विल

किसी रोगी द्वारा बीमारी की लाइलाज स्थिति या असहनीय दर्द या पीड़ा के कारण अपनी पीड़ा को समाप्त करने के लिए स्वेच्छा से अपना जीवन समाप्त करने का निर्णय लेने के कार्य को इच्छा मृत्यु कहा जाता है। इच्छा मृत्यु या तो ‘सक्रिय’ या ‘निष्क्रिय’ हो सकती है और रोगी के जीवन को समाप्त करने के लिए केवल एक चिकित्सक द्वारा ही इसका प्रयोग किया जा सकता है। सक्रिय इच्छा मृत्यु का तात्पर्य घातक पदार्थों या घातक बलों के प्रयोग से है, जैसे कि किसी व्यक्ति को एक या अधिक दवाओं का इंजेक्शन देना जिससे कि उसकी मृत्यु शीघ्र हो जाती है। निष्क्रिय इच्छा मृत्यु का तात्पर्य उस उपचार को बंद करने या उसे रोक लेने से है जो किसी असाध्य रूप से बीमार व्यक्ति को जीवित रखने के लिए आवश्यक है।

भारत में उच्चतम न्यायालय ने 2018 में निष्क्रिय इच्छा मृत्यु को वैध बना दिया था, बशर्ते कि उस रोगी की ओर से ‘लिविंग विल’ हो। लिविंग विल (अर्थात इच्छा मृत्यु की वसीयत) गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति द्वारा लिखित रूप में दिया गया एक बयान होता है, जिसमें यह निर्दिष्ट होता है कि भविष्य में यदि वह अपने स्वयं के चिकित्सा संबंधी निर्णय लेने में असमर्थ हो जाता/जाती है, तो क्या कदम उठाने होंगे। यदि किसी व्यक्ति की लिविंग विल नहीं है, तो रोगी के परिवार के सदस्य उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर सकते हैं और निष्क्रिय इच्छा मृत्यु की अनुमति मांग सकते हैं।

2018 में इच्छा मृत्यु पर उच्चतम न्यायालय का निर्णय

2011 में, कार्यकर्ता और लेखिका पिंकी विरानी ने उच्चतम न्यायालय में एक याचिका दायर कर अरुणा शानबाग को दी जाने वाली जीवन रक्षक दवाओं को देना बंद करने की मांग की थी क्योंकि केवल उनका जीवित रहना उनके ‘गरिमापूर्ण जीवन यापन करने के अधिकार का उल्लंघन’ था। अरुणा शानबाग बॉम्बे के किंग एडवर्ड्स मेमोरियल (केईएम) अस्पताल में एक नर्स थीं, जिनका 1973 में 25 वर्ष की उम्र में यौन उत्पीड़न और बलात्कार किया गया था। उनका गला चेन से घोंटा गया था, जिससे उनके शरीर में ऑक्सीजन की कमी हो गई और वे निष्क्रिय अवस्था में चली गई। इस घटना के बाद उनका केईएम अस्पताल में उपचार किया गया और चार दशकों से अधिक समय तक उन्हें फीडिंग ट्यूब के जरिए जीवित रखा गया। इसके बाद उच्चतम न्यायालय ने इस याचिका को खारिज कर दिया क्योंकि उनका इलाज करने वाले अस्पताल के कर्मचारियों ने उन्हें इच्छा मृत्यु की अनुमति देने का समर्थन नहीं किया था। अंततः, शानबाग की वर्ष 2015 में निमोनिया से मृत्यु हो गई।

अरुणा शानबाग के लिए निष्क्रिय इच्छा मृत्यु पर पिंकी विरानी की याचिका को खारिज करने के बावजूद, उच्चतम न्यायालय ने निष्क्रिय इच्छा मृत्यु को वैधानिक बना दिया, जिसके तहत उपचार या भोजन को बंद करना शामिल नहीं था, जिससे रोगी जीवित रह सके। तथापि, इच्छा मृत्यु पर 2011 की याचिका ने उच्चतम न्यायालय में वर्ष 2018 को इच्छा मृत्यु से संबद्ध ऐतिहासिक अधिमत (वर्डिक्ट) देने में सहायता की।

तत्कालीन मुख्य न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने गंभीर रूप से बीमार रोगियों, जो स्थायी रूप से निष्क्रिय अवस्था में चले जा सकते हैं, की लिविंग विल को मान्यता प्रदान करते हुए उन्हें निष्क्रिय इच्छा मृत्यु की अनुमति दी। सीजेआई (भारत का मुख्य न्यायमूर्ति) ने प्रक्रिया को विनियमित करने के लिए दिशानिर्देश जारी किए और कहा कि संसद द्वारा इस पर विधान पारित किए जाने के बाद वे लागू हो जाएंगे। चूंकि संसद में यह विधान पारित नहीं हुआ था, इसलिए इस विषय पर विधि की अनुपस्थिति के कारण 2018 का निर्णय ही इच्छा मृत्यु पर दिशानिर्देशों की अंतिम निर्णायक स्थिति बन गया।

2018 में इच्छा मृत्यु पर उच्चतम न्यायालय के निर्णय में उल्लिखित है कि

  • लिविंग विल को न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा सत्यापित या प्रतिहस्ताक्षरित किया जाना चाहिए।
  • लिविंग विल को संबंधित जिला न्यायालय के संरक्षण में रखा जाना चाहिए।
  • डॉक्टरों के प्राथमिक बोर्ड में सामान्य चिकित्सा, कार्डियोलॉजी, न्यूरोलॉजी, नेफ्रोलॉजी, मनोचिकित्सा या ऑन्कोलॉजी के क्षेत्रों से कम-से-कम चार विशेषज्ञ शामिल होने चाहिए, जिनका इस पेशे में कम-से-कम 20 वर्षों का समग्र अनुभव हो।
  • यदि प्राथमिक चिकित्सक बोर्ड ने यह प्रमाणित कर दिया हो कि लिविंग विल में दिए गए निर्देशों के अनुसार उपचार को रोक दिया जाना चाहिए, तो संबंधित जिला कलक्टर को चिकित्सक विशेषज्ञों का द्वितीयक बोर्ड गठित करना होगा। तथापि, द्वितीयक चिकित्सक बोर्ड के लिए कोई विशिष्ट समय-सीमा तय नहीं की गई थी।

तथापि, 2018 के अधिमत में लिविंग विल के निष्पादन पर प्राथमिक बोर्ड के लिए कोई अन्य समय-सीमा निर्धारित नहीं की गई थी। उपचार को रोके जाने की किसी अन्य सीमा पर कोई विनिर्देश नहीं था।

निष्क्रिय इच्छा मृत्यु पर 2018 के अधिमत से पहले की स्थिति

1994 में, एक मामले में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 309 की सांविधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी। आईपीसी की धारा 309 के अनुसार, आत्महत्या करने के प्रयास के मामले में एक वर्ष तक की कैद हो सकती है। उच्चतम न्यायालय ने इस धारा को एक ‘क्रूरतापूर्ण और तर्कहीन उपबंध’ माना और कहा कि इसे ‘हमारी दंड विधियों को मानवीय बनाने’ के लिए कानूनी पुस्तक से हटा दिया जाना चाहिए। पी. रथिनम बनाम भारत संघ  मामले में, उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि आत्महत्या का कृत्य किसी भी धर्म, नैतिकता या लोक नीति के विरुद्ध नहीं हो सकता। इसके अलावा, आत्महत्या के प्रयास का समाज पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता है।

तथापि, 1996 में, उच्चतम न्यायालय की पांच न्यायाधीशों वाली न्यायपीठ ने पी. रथिनम बनाम भारत संघ  मामले में दिए गए निर्णय को उलट दिया। उच्चतम न्यायालय ने ज्ञान कौर बनाम पंजाब राज्य  मामले में अपने अधिमत में कहा कि अनुच्छेद 21 के तहत प्राण के अधिकार के अंतर्गत मरने का अधिकार शामिल नहीं है, तथा केवल विधान ही इच्छा मृत्यु की अनुमति प्रदान कर सकता है।

वर्ष 2006 में, भारतीय विधि आयोग ने अपनी प्राणांततः रुग्ण रोगियों का चिकित्सीय उपचार (रोगियों और चिकित्सा व्यवसायियों की सुरक्षा  नामक 196वीं रिपोर्ट में उल्लेख किया कि, एक डॉक्टर जो किसी सक्षम मरीज के चिकित्सीय उपचार को रोकने या बंद करने के निर्देशों का पालन करता है, वह अपने पेशेवर कर्तव्य का उल्लंघन नहीं करता है और उपचार करने में कोई चूक हो तो वह कोई अपराध नहीं होगा। उच्चतम न्यायालय ने यह भी कहा कि यदि कोई रोगी चिकित्सीय उपचार नहीं लेना चाहता है, तो इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वह आईपीसी की धारा 309 के तहत आत्महत्या करने का प्रयास कर रहा है।

2008 में विधि आयोग की निष्क्रिय इच्छा मृत्यु: पुनर्विचार  नामक 241वीं रिपोर्ट में ‘निष्क्रिय इच्छा मृत्यु’ पर एक विधान का प्रस्ताव रखा गया था, तथा एक मसौदा विधेयक भी तैयार किया गया था।

2018 में उच्चतम न्यायालय ने कॉमन कॉज बनाम भारत संघ और अन्य  मामले में निष्क्रिय इच्छा मृत्यु की अनुमति प्रदान की थी। उच्चतम न्यायालय ने ‘सक्रिय’ और ‘निष्क्रिय’ इच्छा मृत्यु के बीच स्पष्ट अंतर भी किया और कुछ स्थितियों में निष्क्रिय इच्छा मृत्यु की अनुमति दी।

निष्क्रिय इच्छा मृत्यु के मानदंड पर उच्चतम न्यायालय का नवीनतम निर्णय

दिसंबर 2023 में, उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन मामले में वरिष्ठ काउंसेल अरविंद दातार और अधिवक्ता प्रशांत भूषण द्वारा तर्क किया जा रहा था। ये दोनों उन याचियों की ओर से जिरह कर रहे थे, जिनका कहना था कि कठिन परिस्थितियों से जुड़ी तीन चरणीय-प्रक्रिया ने पूरे निर्णय को महत्वपूर्ण बना दिया है। इसके अलावा, ऐसा एक भी मामला नहीं आया है, जिसमें निष्क्रिय इच्छा मृत्यु के अधिकार का प्रयोग करने का इच्छुक व्यक्ति अंततः प्रक्रियागत आवश्यकताओं का अनुपालन कर सके। नए मानदंडों के अनुसार:

  • लिविंग विल के लिए न्यायिक मजिस्ट्रेट के हस्ताक्षर के स्थान पर नोटरी या राजपत्रित अधिकारी द्वारा सत्यापन पर्याप्त होगा।
  • न्यायपीठ ने कहा कि लिविंग विल राष्ट्रीय स्वास्थ्य डिजिटल रिकॉर्ड का हिस्सा होगी, जिसे देश के किसी भी हिस्से के अस्पताल और डॉक्टर देख सकेंगे।
  • न्यायपीठ ने मरीज की स्थिति की जांच करने के लिए प्राथमिक और द्वितीयक डॉक्टरों के बोर्ड के गठन में भी महत्वपूर्ण बदलाव किया। नवीनतम निर्णय में कहा गया है कि प्राथमिक बोर्ड तीन डॉक्टरों की एक टीम गठित करेगा जिसमें उपचार करने वाले चिकित्सक और विशेषज्ञता में पांच वर्ष का अनुभव रखने वाले दो अन्य डॉक्टर शामिल होंगे।
  • उच्चतम न्यायालय ने प्राथमिक बोर्ड को रोगी को आगे उपचार देने से रोकने तथा लिविंग विल को क्रियान्वित करने पर निर्णय लेने के लिए 48 घंटे की समय-सीमा निर्धारित की।
  • इसके अलावा, यदि प्राथमिक चिकित्सा बोर्ड ने प्रमाणित किया है कि लिविंग विल के निर्देशों के अनुसार रोगी के उपचार को रोकना है, तो अस्पताल तुरंत एक द्वितीयक चिकित्सा बोर्ड का गठन करेगा। द्वितीयक चिकित्सा बोर्ड में संबंधित जिले के मुख्य चिकित्सा अधिकारी (सीएमओ) द्वारा नामित एक डॉक्टर और संबंधित विशेषज्ञता के दो विषय विशेषज्ञ शामिल होंगे। विशेषज्ञ डॉक्टरों के पास कम से कम पांच वर्ष का अनुभव होना चाहिए और उन्हें प्राथमिक बोर्ड का हिस्सा नहीं होना चाहिए। यदि बोर्ड को मामले की समीक्षा करने या दूसरों से परामर्श करने की आवश्यकता होती है, तो द्वितीयक बोर्ड लिविंग विल के निष्पादन पर 48 घंटों के भीतर विनिश्चय करेगा। जब दोनों बोर्ड लिविंग विल के निष्पादन को मंजूरी दे देते हैं, तो अधिकारिता (ज्यूरिस्डिक्शनल) मजिस्ट्रेट को तुरंत विनिश्चय के बारे में सूचित किया जाएगा।
  • यदि अस्पताल द्वारा गठित चिकित्सा बोर्ड अनुमति देने से इनकार कर देता है, तो अब परिजनों के लिए उच्च न्यायालय, जो एक नई चिकित्सा टीम का गठन करेगा, में अपील करने की राह खुली है। इसके बाद उच्च न्यायालय लिविंग विल के निष्पादन पर अंतिम निर्णय लेने के लिए चिकित्सा विशेषज्ञों का एक नया बोर्ड गठित करेगा।
  • बोर्ड के सदस्य जो कि गंभीर रूप से रुग्ण रोगी की ओर से लिविंग विल के निष्पादक हैं, वे अंतिम निर्णय ले सकते हैं। इसी तरह, गंभीर रूप से रुग्ण मरीज के परिवार के सदस्य भी उल्लिखित सुरक्षा उपायों और प्रक्रिया के अधीन उपचार रोकने का निर्णय ले सकते हैं।

आगे की राह

न्यायपीठ ने अपने आदेश में आगे कहा कि नए दिशानिर्देश सभी उच्च न्यायालयों को भेजे जाने चाहिए। उच्च न्यायालयों को लिविंग विल के डिजिटल रिकॉर्ड के संग्रहण के संबंध में दिए गए निर्णय के अनुसार उचित नियम बनाने चाहिए। इसके अतिरिक्त, सभी उच्च न्यायालयों को राज्यों और संघ राज्यक्षेत्रों के स्वास्थ्य सचिवों को सूचित करना चाहिए कि वे सभी जिलों के सीएमओ को इसकी जानकारी दें।

केंद्र सरकार ने न्यायपीठ को सूचित किया है कि वह निष्क्रिय इच्छा मृत्यु पर कोई विधि नहीं बनाएगी, क्योंकि किसी की जान लेने की व्यग्रता (अनिश्चय की भावना, विशेषतः भविष्य के प्रति) आवश्यक सुरक्षा उपायों की आवश्यकता से अधिक नहीं होनी चाहिए। केंद्र सरकार ने आगे कहा कि कुछ सुरक्षा उपायों का पालन करने के बाद निष्क्रिय इच्छा मृत्यु की अनुमति देने पर 2018 का उच्चतम न्यायालय का निर्णय पर्याप्त है, इसलिए, इस विषय पर किसी विनिर्दिष्ट विधि की आवश्यकता नहीं है।

अन्य कुछ देशों में इच्छा मृत्यु के नियम

  • नीदरलैंड, लक्जमबर्ग और बेल्जियम ऐसे रोगियों के लिए इच्छा मृत्यु और सहायताजन्य आत्महत्या (euthansia) की अनुमति देते हैं, जो ‘असहनीय पीड़ा’ से गुजर रहे हैं और जिनमें सुधार की कोई संभावना नहीं है।
  • स्विट्जरलैंड में डॉक्टर की मौजूदगी में इच्छा मृत्यु की अनुमति है।
  • कनाडा मार्च 2023 से मानसिक रूप से बीमार रोगियों के लिए इच्छा मृत्यु और सहायताजन्य आत्महत्या की अनुमति देता है।
  • अमेरिका में वाशिंगटन, ओरेगन और मोंटाना जैसे कुछ राज्यों में इच्छा मृत्यु की अनुमति है।
  • ब्रिटेन इच्छा मृत्यु को अवैध मानता है।

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