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भारत में राजनैतिक निधीयन (Political Funding in India)

भारत का राजनैतिक निधीयन परिदृश्य जटिल है, जिसमें चुनावों और राजनीतिक दलों के निधीयन में राज्य की भूमिका के बारे में उल्लेखनीय विभिन्न राय और नीति प्रस्ताव हैं। पिछले कुछ वर्षों में, विभिन्न समितियों और आयोगों ने राजनीति में धन द्वारा उत्पन्न चुनौतियों को संबोधित करने के लिए विभिन्न उपागमों की खोज की है। हालांकि, अभी भी आम सहमति बना पाना कठिन है तथा भारत की वर्तमान व्यवस्था राजनीतिक दलों के लिए सीमित अप्रत्यक्ष आर्थिक सहायता पर निर्भर करती है।

भारत में राजनैतिक निधीयन पर विभिन्न आयोगों के विचार

इंद्रजीत गुप्ता समिति (1998): • इसने चुनावों के लिए राज्य द्वारा निधीयन का समर्थन किया, जिसने इसे सांविधानिक, विधिक और जनता के हित में उचित माना। इसका उद्देश्य राजनीतिक दलों, विशेष रूप से सीमित वित्तीय संसाधनों वाले दल, के लिए समान अवसर उपलब्ध कराना था।

  • इसने राज्य निधीयन (state funding) पर सीमाएं निर्धारित करने की सिफारिश की और सुझाव दिया कि यह निधि केवल आबंटित चुनाव चिह्न वाले उन राष्ट्रीय और राज्य स्तर के दलों को आबंटित किया जाना चाहिए, निर्दलीय अभ्यर्थियों को नहीं। इसके अतिरिक्त, इसने देश की तत्कालीन आर्थिक स्थितियों को ध्यान में रखते हुए, नकद के बजाय वस्तु के रूप में राज्य निधि प्रदान करने का प्रस्ताव रखा।
  • आर्थिक बाधाओं के कारण, इस समिति ने चुनावों के लिए पूर्ण राज्य निधीयन के बजाय आंशिक निधीयन का सुझाव दिया।

भारत का विधि आयोग (1999) • इसने भी चुनावों के लिए पूर्ण राज्य निधीयन का समर्थन किया, लेकिन इस शर्त के साथ कि राजनीतिक दल राज्य के अलावा अन्य स्रोतों से निधि स्वीकार करने से बचें।

  • इसने राज्य निधीयन को लागू करने से पहले राजनीतिक दलों के लिए एक सुदृढ़ नियामक ढांचा स्थापित करने की आवश्यकता पर बल दिया, जिसमें आंतरिक लोकतंत्र, संरचनात्मक रखरखाव और वित्तीय पारदर्शिता के प्रावधान शामिल हों।
  • इसने आर्थिक बाधाओं को मान्यता दी तथा प्रारंभ में आंशिक राज्य निधीयन की सिफारिश की।

द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (2008): • इसने अवैध और अत्यधिक चुनाव व्यय को कम करने के लिए आंशिक राज्य निधीयन की सिफारिश की। इसका उद्देश्य निर्वाचन प्रक्रिया पर अनुचित वित्तीय योगदान के प्रभाव को रोकना था।

  • यह सिफारिश शासन में नैतिकता को बढ़ावा देने और निर्वाचन वित्तपोषण में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के व्यापक उद्देश्यों के अनुरूप थी।

राष्ट्रीय संविधान कार्यकरण समीक्षा आयोग (2001): • कुछ अन्य समितियों के विपरीत, इस आयोग ने चुनावों के लिए राज्य निधीयन का स्पष्ट रूप से समर्थन नहीं किया।

  • इसने राज्य निधीयन पर विचार करने से पहले राजनीतिक दलों के लिए एक मजबूत नियामक ढांचा स्थापित करने की आवश्यकता पर विधि आयोग के रुख से सहमति व्यक्त की।

चुनावों में राज्य निधीयन के पक्ष में

पारदर्शिता: राज्य निधीयन यह सुनिश्चित करके कि राजनीतिक दलों और अभ्यर्थियों को लोक धन से निधिक सहायता प्रदान की जाती है, जो कि लोक संवीक्षा के अधीन है, वास्तव में निर्वाचन प्रक्रिया में पारदर्शिता ला सकता है।

चुनावी प्रतिस्पर्धा के लिए एक-समान अवसर: राज्य निधीयन वास्तव में छोटे या वित्तीय रूप से कम संपन्न राजनीतिक दलों को चुनावों में प्रभावी ढंग से प्रतिस्पर्धा करने के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराकर उनके लिए समान अवसर उपलब्ध कराने में सहायता कर सकता है।

काले धन में कमी: राज्य निधीयन से चुनाव अभियानों में काले धन पर निर्भरता कम हो सकती है, जैसा कि यदि राजनीतिक दलों को राज्य से पर्याप्त निधि प्राप्त हो तो उनके लिए संदिग्ध स्रोतों से निधि प्राप्त करना कम प्रेरक होगा।

बेहतर जवाबदेही: चुनावों के लिए लोक निधीयन से वास्तव में जनता के प्रति राजनीतिक दलों और अभ्यर्थियों की जवाबदेही बढ़ सकती है, जैसा कि वे अपने चुनाव अभियानों में लोक निधि के उपयोग के लिए जवाबदेह होंगे।

लोकतंत्र को बढ़ावा: राज्य निधीयन वास्तव में लोकतांत्रिक आदर्शों को बढ़ावा दे सकता है, जैसा कि इससे यह सुनिश्चित होता है कि चुनाव अनुचित रूप से वित्तीय शक्ति से प्रभावित न हों, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया मजबूत होगी।

चुनावों में राज्य निधीयन के विपक्ष में

लोक निधियों का दुरुपयोग: चुनावी प्रयोजनों के लिए आबंटित लोक निधि के दुरुपयोग का खतरा रहता है, जैसा कि राजनीतिक दल या अभ्यर्थी इस निधि का उपयोग चुनाव प्रचार के अलावा अन्य प्रयोजनों के लिए कर सकते हैं।

प्रभावशीलता की कमी: केवल राज्य निधीयन निर्वाचन प्रक्रिया में पारदर्शिता की गारंटी नहीं दे सकता है, जैसा कि यह इस बात पर निर्भर करता है कि राज्य निधीयन किस प्रकार से लागू किया जाता है और उसकी निगरानी किस प्रकार से की जाती है। ऐसी संभावना है कि राज्य निधीयन निर्वाचन अनाचारों के मूल कारणों को प्रभावित न कर सके।

कर-दाताओं पर बोझ: चुनावों के लिए राज्य निधीयन के लिए उल्लेखनीय लोक निधियों की आवश्यकता होगी, जिसका बोझ अंततः कर-दाताओं पर पड़ेगा। सरकार द्वारा अन्य महत्वपूर्ण सामाजिक या आर्थिक मुद्दों पर चुनाव निधीयन को प्राथमिकता दिए जाने से संबद्ध चिंताएं उभर सकती हैं।

वितरण में चुनौतियां: राजनीतिक दलों और अभ्यर्थियों के बीच राज्य निधि के वितरण का निर्धारण करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है और इससे न्याय और निष्पक्षता पर प्रश्न उठ सकते हैं।

राजनीतिक कार्य-साधन की संभावना: चुनावों के लिए राज्य निधीयन राजनीतिक कार्य साधन के लिए अतिसंवेदनशील हो सकता है, क्योंकि सत्तारूढ़ दल द्वारा अपने निर्वाचन संबंधी लाभ के लिए राज्य निधि का दुरुपयोग करने की संभावना बनी रहती है।

विश्व में राजनीतिक निधीयन और संबंधित पहल

राजनीति पर मौद्रिक प्रभाव विश्व में चिंता का एक विषय है, जिसका प्रभाव लगभग सभी लोकतांत्रिक देशों पर पड़ता है। जापान के ‘रिक्रूट’, ब्रिटेन के ‘वेस्टमिनस्टर’ और अमेरिका के ‘वॉटरगेट’ जैसे घोटाले राजनीतिक निधीयन के मुद्दों को स्पष्ट करते हैं, जो भ्रष्टाचार और कदाचार के उदाहरणों को उजागर करते हैं। चुनाव संबंधी भ्रष्टाचार, जैसे कि ब्राजील में डिल्मा रूसेफ के विरुद्ध महाभियोग, वित्तीय प्रभाव को संबोधित करने में लोकतंत्रों के लिए चुनौतियों को उजागर करता है।

ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल्स के करपशन इंडेक्स में इंडोनेशिया, मैक्सिको, रूस, मलेशिया और फिलीपींस जैसे देशों में चुनाव से संबंधित रिश्वतखोरी से निपटने में खराब प्रदर्शन को उजागर किया गया है। उभरते लोकतंत्रों को भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और भाई-भतीजावाद (cronyism) जैसी बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जो विकास और वृद्धि में बाधा डालते हैं।

कुछ पहल

  • राजनीतिक दलों के लिए लोक निधीयन की शुरुआत कई देशों में एक महत्वपूर्ण सुधार है।
  • 1920 के दशक में लैटिन अमेरिकी देशों ने राजनीतिक दलों के लिए सरकारी आर्थिक सहायता प्रदान करने में अग्रणी भूमिका निभाई, जिसके बाद जर्मनी, यूनाइटेड किंगडम और फ्रांस जैसे यूरोपीय देशों का स्थान रहा।
  • वॉटरगेट स्कैंडल के बाद अमेरिका में लोक वित्तपोषण में तेजी आई और 116 देशों ने राजनीतिक दलों के लिए प्रत्यक्ष लोक निधीयन लागू किया।
  • अधिकांश यूरोपीय देश राजनीतिक दलों को सरकारी आर्थिक सहायता प्रदान करते हैं, जो लोक वित्तपोषण की ओर वैश्विक रुझान को दर्शाता है।

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