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होयसल मंदिर एवं इनकी वास्तुकला

कर्नाटक स्थित होयसल-युग के मंदिर भारत की महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत के एक साक्ष्य के रूप में मौजूद हैं। होयसल वंश/काल (1026 ईसवी-1343 ईसवी) कला, स्थापत्य एवं सांस्कृतिक उपलब्धियों के युग के रूप में स्मरण किया जाता है। इस युग ने विशिष्ट रूप से स्थापत्यकला को एक नई ऊंचाई प्रदान की। होयसल मंदिर स्थापत्य का एक विशेष लक्षण विशिष्ट प्रकार के पत्थर का इस्तेमाल है। यह हरे या काले रंग की आभा लिए क्लोराइटयुक्त परतदार चट्टान है जिसे सेलखड़ी कहा जाता है। हालांकि होयसल के केवल तमिलनाडु क्षेत्र में निर्मित मंदिरों में ही ग्रेनाइट का प्रयोग किया गया है। होयसल मंदिरों को उनके गर्भगृहों की संख्या के आधार पर पांच समूहों—एककुट (एक गर्भगृह), द्विकुट (दो गर्भगृह), त्रिकुट (तीन गर्भगृह), चटुषकुट (चार गर्भगृह), तथा पंचकुट (पांच गर्भगृह) में विभाजित किया जा सकता है।

उल्लेखनीय है कि सितंबर 2023 में होयसल के तीन मंदिरों—बेलूर (चेन्नकेश्वर मंदिर), हैलेबिड (होयसलेश्वर मंदिर), सोमनाथपुर (केशव मंदिर) को यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल किया गया।

होयसल के मंदिरों के बारे में

यद्यपि, होयसल-युग के सैकड़ों मंदिर हैं, तथापि बेलूर, हैलेबिड और सोमनाथपुरा के मंदिर अपनी असाधारण होयसल कला के लिए प्रसिद्ध हैं। बेलूर के चेन्नकेश्वर मंदिर में 46 स्तंभ हैं और केंद्रीय कक्ष में चार स्तंभों को छोड़कर, अन्य सभी पर विभिन्न प्रकार के जटिल डिजाइन बने हैं। मंदिर में राजा विष्णुवर्धन, जिन्होंने इस मंदिर का निर्माण करवाया था, की रानी शांतला देवी की दर्पण सुंदरी के रूप में मूर्ति बनाई गई है। सोमनाथपुर में केशव मंदिर का निर्माण 16-सूचक वाले तारकीय आकार के एक मंच पर किया गया है और इसके प्रांगण में केशव, जनार्दन और वेणुगोपाल को समर्पित तीन मंदिर हैं। हैलेबिड में होयसलेश्वर मंदिर के बाहरी भाग में विशाल मूर्तियां हैं। यह प्लास्टिक फॉर्म (मूर्ति-रूप) में व्यक्त धर्मिक विचारों के संग्रह के रूप में उपयुक्त है। होयसलेश्वर मंदिर तब खंडहर हो गया जब मलिक काफूर ने, जो दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी का तत्कालीन सेनापति था, इस पर छापा मारा था।

होयसल राजवंश ने 10वीं से 14वीं शताब्दी तक कर्नाटक राज्य पर शासन किया। इस राजवंश की शुरुआत पश्चिमी चालुक्यों के अधीन प्रांतीय शासकों के रूप में हुई थी। पश्चिमी चालुक्य और चोल दक्षिण में दो प्रमुख साम्राज्य थे; हालांकि, 10वीं शताब्दी तक वे धीरे-धीरे छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट गए। इससे होयसलों के लिए अपना साम्राज्य स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त हुआ। बेलूर और हैलेबिदु या द्वारसमुद्र मंदिर उन शहरों में स्थित हैं जिनका उपयोग होयसलों की राजधानी के रूप में किया जाता था।

बेलूर का चेन्नकेश्वर मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है। इसका निर्माण 1117 ईसवी के आसपास प्रसिद्ध होयसल राजा, विष्णुवर्धन, द्वारा करवाया गया था, जिन्होंने चोलों पर अपनी जीत की स्मृति के रूप में इस मंदिर का निर्माण करवाया था। इस मंदिर को विजय नारायण मंदिर भी कहा जाता है। यह एक जीवंत मंदिर है और मंदिर परिसर का भू-क्षेत्रफल 1.59 हेक्टेयर है।

सोमनाथपुर का केशव मंदिर एक वैष्णव मंदिर है, और इसका निर्माण 1260 ईसवी के आसपास होयसल राजा नरसिम्हा तृतीय के सेनापति सोमनाथ द्वारा करवाया गया था। मंदिर के खुले प्रांगण में कई कलाकृतियां प्रदर्शित की गई हैं जो एक बहु-कोष्ठक प्राकार से घिरा हुआ है। मंदिर परिसर का क्षेत्रफल 1.88 हेक्टेयर है।

हैलेबिड का होयसलेश्वर मंदिर, अनुमान है कि जिसे 12वीं शताब्दी में बनाया गया था, होयसलों द्वारा निर्मित सबसे बड़ा शिव मंदिर माना जाता है। यह दोरासमुद्र तालाब के तट पर स्थित है। हैलेबिदु में कई संरक्षित और असंरक्षित मंदिर, पुरातात्विक खंडहर, तथा टीले हैं। यह शहर किले के अवशेषों और प्रवेश द्वारों से सुरक्षित था। मंदिर परिसर का क्षेत्रफल लगभग सात हेक्टेयर है।

होयसल मंदिरों की वास्तुकला

होयसल शैली विभिन्न प्रकार की शैलियों का मिश्रण है। इसे मध्य भारत की भूमिजा शैली, उत्तरी भारत की नागर परंपराओं और कर्नाटक की समुज्जवल द्रविड़ शैली से लिया गया है। होयसल मंदिरों के वास्तुकारों ने विभिन्न मंदिर-निर्माण परंपराओं के अपने ज्ञान को तीन मंदिरों में अलग-अलग विधि से प्रकट किया है। मंदिरों में बहु-स्तरित चित्रवल्लरियां (friezes) और व्यापक स्तर पर मूर्तिकला दीर्घाएं थीं। इनका निर्माण प्रदक्षिणा हेतु बनाए गए तारकीय आकार के मंचों पर किया गया था। ग्रेनाइट पत्थरों से बने प्रारंभिक होयसल मंदिरों में कोई जटिल विवरण नहीं था। इन मंदिरों का निर्माण तब करवाया गया था होयसल साम्राज्य की शक्ति अपने चरम पर थी। इन मंदिरों में नक्काशी सेलखड़ी (सोपस्टोन) से, जो एक नरम पत्थर होता है जिस पर आसानी से नक्काशी की जा सकती है, की गई थी। इन मंदिरों में मूर्तिकारों द्वारा जटिल, आलंकारिक और उत्कृष्ट काम किया गया था, तथा मूर्तियां जटिल केश-विन्यास, वस्त्रों और आभूषणों के साथ अति-वास्तविक दिखती थीं। दीवारों और स्तंभों पर मूल्यवान आख्यान और वर्णनात्मक आयाम हैं। होयसल मूर्तिकारों ने मल्लोजा, मनियोजा, दासोजा और मालितम्मा जैसी कलाकृतियों पर अपने हस्ताक्षर भी छोड़े। मूर्तिकारों के उत्कृष्ट कौशल प्रदर्शन के अलावा, ये मंदिर उस नीति की कहानी भी दर्शाते हैं जिसने उन्हें आकार दिया।

होयसल वास्तुकला की एक और विशिष्ट विशेषता इसकी विभिन्न शैलियों का अनूठा सम्मिलन है। यह तीन विशिष्ट शैलियों का एक संयोजन है, अर्थात पल्लव और चोल मंदिरों में प्रदर्शित मुख्यधारा द्रविड़ वास्तुकला; द्रविड़ शैली का एक अन्य भिन्न रूप जिसे वेसर शैली कहा जाता है, और जिसे चालुक्य एवं राष्ट्रकूट मंदिरों में देखा गया है; तथा उत्तर भारतीय मंदिरों में देखी गई नागर शैली।

होयसल मंदिरों की एक और रोचक विशेषता यह है कि ये वैष्णव और शैव्य मंदिर उस समय बनाए गए थे जब इस क्षेत्र में जैन धर्म प्रमुख था। इसलिए, इन मंदिरों के निर्माण के बाद लोगों ने हिंदू धर्म की ओर रूख करना शुरू कर दिया।

होयसल काल के अन्य स्मारक

होयसल काल के महलों या किलों जैसे कोई अन्य स्मारक नहीं बचे हैं। यह प्रारंभिक मध्ययुगीन और मध्ययुगीन गैर-इस्लामी दुनिया का एक रहस्य बना हुआ है, क्योंकि ये भवन न तो मृदा से बने थे, न ईंट से, न लकड़ी से, न ही पत्थर से। हम्पी के केवल कुछ खंडहर ही वास्तुकला के रूप में अब भी बचे हुए हैं।

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