सत्रहवीं लोक सभा का गठन जून 2019 की शुरुआत में हुआ था। इसके अध्यक्ष (स्पीकर) का निर्वाचन 19 जून, 2019 तक हो गया था। लेकिन सत्रहवीं लोक सभा के अंतिम सत्र तक उपाध्यक्ष (डेप्युटी स्पीकर) का पद रिक्त रहा।
फरवरी 2023 में, उच्चतम न्यायालय ने एक वकील, शरीक अहमद, द्वारा दायर एक जनहित याचिका जिसमें लोक सभा और कई राज्य विधान सभाओं में उपाध्यक्ष को निर्वाचित न किए जाने का मुद्दा उठाया गया था, पर केंद्र से जवाब मांगा।
लोक सभा के अलावा, फरवरी 2024 तक राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और झारखंड की राज्य विधान सभाओं में उपाध्यक्ष निर्वाचित नहीं थे।
मार्च 2023 में, कांग्रेस ने लोक सभा में लगभग चार वर्षों तक कोई उपाध्यक्ष न होने का मुद्दा उठाया था और इसे ‘असंवैधानिक’ बताया।
लोक सभा के नियमों के अनुसार, लोक सभा का अध्यक्ष लोक सभा के उपाध्यक्ष के चुनाव की तारीख तय करता है। हालांकि, जैसा कि लोक सभा के पूर्व महासचिव पी.डी.टी. आचार्य ने बताया कि वास्तव में, “यह सरकार है जो सभी दलों के साथ परामर्श करती है और उपाध्यक्ष के लिए एक सर्वसम्मत उम्मीदवार का विनिश्चय करती है।”
लोक सभा के उपाध्यक्ष के निर्वाचन पर सांविधानिक उपबंध
भारत के संविधान का अनुच्छेद 93 लोक सभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष से संबंधित है, और इसके अनुसार, ‘लोक सभा, यथाशक्य शीघ्र, अपने दो सदस्यों को अपना अध्यक्ष और उपाध्यक्ष चुनेगी और जब-जब अध्यक्ष या उपाध्यक्ष का पद रिक्त होता है तब-तब लोक सभा किसी अन्य सदस्य को, यथास्थिति, अध्यक्ष या उपाध्यक्ष चुनेगी।’
राज्य विधान सभाओं के संदर्भ में, अनुच्छेद 178 के अनुसार, ‘प्रत्येक राज्य की विधान सभा, यथाशक्य शीघ्र, अपने दो सदस्यों को अपना अध्यक्ष और उपाध्यक्ष चुनेगी और जब-जब अध्यक्ष या उपाध्यक्ष का पद रिक्त होता है तब-तब विधान सभा किसी अन्य सदस्य को, यथास्थिति, अध्यक्ष या उपाध्यक्ष चुनेगी।’
लोक सभा के उपाध्यक्ष पद का महत्व
लोक सभा के प्रक्रिया तथा कार्य-संचालन के नियम के अनुसार, किसी सदन के सत्र की अध्यक्षता करते समय लोक सभा के उपाध्यक्ष को लोक सभा के अध्यक्ष के समान ही शक्तियां प्राप्त होती हैं। भारत के संविधान के अनुच्छेद 180 के अनुसार, लोक सभा के अध्यक्ष का पद रिक्त होने पर लोक सभा के उपाध्यक्ष को लोक सभा के अध्यक्ष के कर्तव्यों का संचालन करने की शक्ति प्राप्त होती है। लोक सभा अध्यक्ष की अनुपस्थिति में लोक सभा का उपाध्यक्ष इसके अध्यक्ष की विधायी और प्रशासनिक कार्यों की शक्तियों को ग्रहण करता है।
लोक सभा का उपाध्यक्ष लोक सभा अध्यक्ष के रूप में कार्य करता है—जब अध्यक्ष, उदाहरण के लिए बीमारी, इस्तीफा दे देने या मृत्यु के कारण, अनुपस्थित रहता है—तो लोक सभा के अध्यक्ष के पद का कार्यभार उपाध्यक्ष द्वारा सुनिश्चित किया जाता है।
लोक सभा का उपाध्यक्ष लोक सभा के अध्यक्ष के अधीनस्थ नहीं होता है, बल्कि एक स्वतंत्र सांविधानिक पद धारण करता है, तथा सदन के प्रति जवाबदेह होता है, और उसे केवल उक्त सदन द्वारा ही हटाया जा सकता है। इसके अलावा, संविधान के अनुसार, इस्तीफा देने का विकल्प चुनने पर अध्यक्ष को अपना इस्तीफा उपाध्यक्ष को प्रस्तुत करना होता है।
अनिवार्य रूप से रिक्ति को भरने का विचार
जो लोग कहते हैं कि रिक्ति भरी जानी चाहिए, उनके अनुसार, अनुच्छेद 93 और 178 में शब्द ‘चुनेगी’ प्रयुक्त किया गया है न कि ‘चुना जा सकता है’ का, इसलिए इस मामले में लोक सभा के पास कोई विवेकाधिकार नहीं रह गया है। दूसरे शब्दों में, लोक सभा को एक उपाध्यक्ष का चयन करना होगा। भारत के संविधान निर्माताओं ने अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के पदों को इतना महत्वपूर्ण माना कि उन्होंने यह प्रावधान किया कि, यदि दोनों में से कोई भी पद रिक्त हो तो उसे यथाशीघ्र भरा जाए। पद, ‘यथाशक्य शीघ्र’, की व्याख्या उपाध्यक्ष के सांविधानिक पद को भरने में अनिश्चितकालीन स्थगन के रूप में नहीं की जानी चाहिए।
संविधान के अनुच्छेद 122(1) के अनुसार, ‘संसद की किसी कार्यवाही की विधिमान्यता को प्रक्रिया की किसी अभिकथित अनियमितता के आधार पर प्रश्नगत नहीं किया जाएगा।’ इस संदर्भ में कुछ लोगों का कहना है कि न्यायालयों को कम से कम इस बात की जांच करने का अधिकार है कि उपाध्यक्ष के पद पर चुनाव क्यों नहीं हुआ क्योंकि भारत के संविधान में ‘यथाशक्य शीघ्र’ चुनाव का उल्लेख है।
हालांकि, सरकार के प्रवक्ताओं के अनुसार, ‘यथाशक्य शीघ्र’ पद यह दर्शाते हैं कि समय सीमा के भीतर उपाध्यक्ष का चुनाव करने की कोई सांविधानिक बाध्यता नहीं है। इसके अलावा, उपाध्यक्ष की अनुपस्थिति में लोक सभा की कार्यवाही के संचालन पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है। किसी अध्यक्ष की अनुपस्थिति को अभिभूत करने का उपबंध हैः लोक सभा के नौ सदस्यों का एक पैनल होता है जिसका गठन विभिन्न दलों से संबद्ध वरिष्ठ और अनुभवी सदस्यों में से किया जाता है, तथा ये सदस्य किसी अध्यक्ष के अनुपस्थित होने पर उस अनुपस्थित अध्यक्ष के रूप में कार्य करते हैं और सदन चलाने में अध्यक्षता करने वाले अध्यक्ष की सहायता करते हैं। लोक सभा के उपाध्यक्ष का सांविधानिक पद, एक दृष्टिकोण से, किसी वास्तविक प्राधिकार के पद से अधिक संसदीय लोकतंत्र का प्रतीक है।
पिछली नियुक्तियों में देरी
लोक सभा के उपाध्यक्ष के संदर्भ में, ऐसे कुछ उदाहरण हैं जब लोक सभा के अध्यक्ष चुने जाने के बाद काफी समय बाद उपाध्यक्ष का चयन किया गया। दसवीं लोक सभा में अध्यक्ष के चुनाव और उपाध्यक्ष के रूप में एस. मल्लिकार्जुनैया के चुनाव के बीच 33 दिनों का अंतराल था। ग्यारहवीं लोक सभा में, 52 दिनों के भीतर सूरज भान को उपाध्यक्ष चुना गया था। बारहवीं लोक सभा में अध्यक्ष चुने जाने के 270वें दिन पी.एम. सईद को उपाध्यक्ष के रूप में चुना गया था। इससे अगली लोक सभा में, केवल 7 दिनों में सईद को पुनः उपाध्यक्ष चुना गया, जैसा कि चौदहवीं और पंद्रहवीं लोक सभा में क्रमशः चरणजीत सिंह अटवाल और करिया मुंडा उपाध्यक्ष बने। सोलहवीं लोक सभा में, अध्यक्ष के चुने जाने के 70 दिनों बाद एम. थम्बी दुरई को उपाध्यक्ष चुना गया। सत्रहवीं लोक सभा ने सबसे लंबे समय तक पद रिक्त रखने का पिछला रिकॉर्ड तोड़ दिया।
लोक सभा के उपाध्यक्ष पद के बारे में
भारत सरकार अधिनियम, 1919 में अध्यक्ष और उपाध्यक्ष की व्यवस्था का उपबंध किया गया था, हालांकि इन्हें क्रमशः सभापति और उपसभापति कहा जाता था (एक नाम पद्धति जो 1947 तक बनी रही)। वर्ष 1921 में भारत के गवर्नर जनरल ने फ्रेडरिक व्हाइट और सच्चिदानंद सिन्हा को क्रमशः केंद्रीय विधान सभा का सभापति और उपसभापति (अध्यक्ष और उपाध्यक्ष) नियुक्त किया।
सितंबर 1948 में, संविधान सभा के विधान-मंडल (लेजिस्लेटिव विंग) ने जी.वी. मावलंकर को प्रथम अध्यक्ष और एम. अनंतशयनम अयंगर को प्रथम उपाध्यक्ष के रूप में चुना। भारत के संविधान के प्रख्यापन और 1952 में हुए पहले लोक सभा चुनाव के बाद, मावलंकर और अनंतशयनम अयंगर को क्रमशः पहली लोक सभा के प्रथम अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के रूप में निर्वाचित किया गया।
निर्वाचन और पदावधि: लोक सभा के अध्यक्ष के निर्वाचन के बाद, अध्यक्ष की तरह ही, उपाध्यक्ष का निर्वाचन लोक सभा के अपने सदस्यों में से साधारण बहुमत से होता है। लोक सभा नियमों के नियम 8 के तहत, अध्यक्ष को यह तय करना होता है कि उपाध्यक्ष का चुनाव कब होगा। चुनाव की तारीख तय होने के बाद, सदन (लोक सभा) का कोई भी सदस्य चुनाव के लिए उम्मीदवार के रूप में किसी अन्य सदस्य का नाम प्रस्तावित कर सकता है।
एक बार निर्वाचित होने के पश्चात, उपाध्यक्ष आम तौर पर उस लोक सभा के कार्यकाल के दौरान पद पर बना रहता है, यद्यपि—(i) यदि वह लोक सभा का सदस्य नहीं रहता है; (ii) यदि वह अध्यक्ष को लिखित में इस्तीफा दे दे; और (iii) यदि 14 दिनों के नोटिस के बाद उसे हटाने का प्रस्ताव लोक सभा के सभी तत्कालीन सदस्यों के बहुमत से पारित हो जाता हो—तो वह समय से पूर्व अपना पद छोड़ सकता है।
उपाध्यक्ष की भूमिका एवं शक्तियां
जब लोक सभा के अध्यक्ष का पद रिक्त होता है और जब वह सदन की बैठक (संयुक्त बैठक सहित )से अनुपस्थित होता है तो लोक सभा का उपाध्यक्ष, लोक सभा के अध्यक्ष के कर्तव्यों का पालन करता है। इनमें से किसी भी स्थिति में, वह अध्यक्ष की सभी शक्तियां ग्रहण करता है। लोक सभा का उपाध्यक्ष, लोक सभा के अध्यक्ष के अधीनस्थ न होकर सदन के प्रति उत्तरदायी होता है। उसके निर्णय अंतिम और बाध्यकारी होते हैं, तथा इनके खिलाफ अपील नहीं की जा सकती, भले ही उसने लोक सभा के अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उसकी शक्तियां ग्रहण की हों। लोक सभा का उपाध्यक्ष जब भी किसी संसदीय समिति के सदस्य के रूप में नियुक्त किया जाता है, तो स्वतः ही उसका अध्यक्ष बन जाता है।
जब लोक सभा का अध्यक्ष सदन की अध्यक्षता करता है, तो लोक सभा का उपाध्यक्ष सदन का एक सामान्य सदस्य होता है, जो सदन की कार्यवाहियों में भाग लेता है, विचार-विमर्श में अपना वक्तव्य देता है, सदन में किसी भी प्रश्न पर मतदान करता है।
विपक्ष से उपाध्यक्ष नियुक्त करने की परंपराः यद्यपि न तो भारत के संविधान और न ही लोक सभा के नियम इसे निर्धारित करते हैं, तथापि लोक सभा के उपाध्यक्ष के पद के लिए विपक्ष के सदस्य को चुनने की एक प्रवृत्ति (या अलिखित परंपरा) विकसित हुई है। यह उल्लेखनीय है कि अकाली दल के सरदार हुकम सिंह को 1956 में सर्वसम्मति से लोक सभा का उपाध्यक्ष चुना गया था, भले ही वे सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी से नहीं थे। हालांकि, लोक सभा के निम्नलिखित कई कार्यकालों में, सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी ने लोक सभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष दोनों पदों को धारण किया। (1977 में, हालांकि सरदार हुकम सिंह को एक बार फिर दूसरी लोक सभा का उपाध्यक्ष चुना गया, लेकिन वे तब तक कांग्रेस पार्टी का सदस्य बन चुके थे।)
बहुत बाद में, मोरारजी देसाई की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार ने 1977 में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को लोक सभा के उपाध्यक्ष का पद देने की पेशकश की।
1980 में इंदिरा गांधी की सरकार और 1984 में राजीव गांधी की सरकार ने किसी विपक्षी दल को इस पद की पेशकश नहीं की, बल्कि इसे क्रमशः अपने सहयोगियों, द्रमुक (डीएमके) और अन्नाद्रमुक (एआईएडीएमके), को दे दिया।
1989 के बाद से, गठित सरकारों ने लगातार विपक्षी दल के सदस्य को लोक सभा के उपाध्यक्ष के रूप में चुने जाने की अनुमति देने की परंपरा का पालन किया है।
ऐसा प्रतीत होता है कि मोदी सरकार एक मजबूत विपक्षी दल को लोक सभा में विधायी कार्य पर पकड़ बनाने की इजाजत देने को तैयार नहीं है। उसे उम्मीदवार खड़ा करने के लिए कोई गैर-सहयोगी पार्टी भी नहीं मिल पाई है। इसलिए, सत्रहवीं लोक सभा के पूरे कार्यकाल के दौरान उपाध्यक्ष का पद लगातार रिक्त था।
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