भारतीय न्यायपालिका की कार्यपद्धति में पारदर्शिता पर टिप्पणी करते हुए भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश, जे.एस. वर्मा, ने इंगित किया कि यूके में अभी भी परंपरा का सम्मान किया जाता है, जबकि अमेरिका में कानून, सुरक्षोपायों का ध्यान रखते हैं, लेकिन भारत में जवाबदेही संबंधी कदमों के क्रियान्वयन हेतु दबाव बनाने में सिविल सोसाइटी असफल रही है। इस परिप्रेक्ष्य में, यह उल्लेखनीय है कि, 2007 में, यूके सरकार को कंप्यूटरों के दुरुपयोग के लिए न्यायाधीशों की सूची जारी करने के लिए मजबूर होना पड़ा। जब यूके के न्याय मंत्रालय द्वारा जांच के अधीन आने वाले न्यायाधीशों की संख्या और श्रेणी को प्रकट करने से यह कहते हुए इनकार किया गया कि न्यायाधीश, फ्रीडम ऑफ इन्फॉरमेशन ऐक्ट के अधीन नहीं हैं, तो वहां सूचना आयोग द्वारा इसे खारिज कर दिया गया।
भारत में नवंबर 2019 में इस दिशा में तब सही कदम उठाया गया, जब भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की एक संवैधानिक पीठ ने सर्वसम्मति से यह निर्णय दिया कि भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम के तहत एक लोक प्राधिकारी है। एन.वी. रमण, डी.वाई. चंद्रचूड़, दीपक गुप्ता और संजीव खन्ना पीठ में शामिल अन्य न्यायाधीश थे। पीठ ने सीपीआईओ, उच्चतम न्यायालय बनाम सुभाष चंद्र अग्रवाल, मामले में यह निर्णय दिया। (सीपीआईओ एक केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी होता है।)
सुभाष चंद्र अग्रवाल मामला
इस मामले में प्रतिवादी, सुभाष चंद्र अग्रवाल द्वारा, (i) उच्चतम न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की उच्च पदों पर नियुक्ति से संबंधित पत्राचार और संचिका टिप्पणी; (ii) 1997 के प्रस्ताव के अनुरूप न्यायाधीशों द्वारा अर्जित संपत्तियों की घोषणा से संबंधित सूचना; और (iii) अखबार की रिपोर्ट में नामित अधिवक्ता और न्यायाधीश के विरुद्ध संस्थापित अनुशासनात्मक कार्यवाहियों की पहचान और प्रकृति से संबंधित सूचना मांगी गई थी ।
सूचना (2) के मामले में, यह स्मरण किया जा सकता है कि 1997 में न्यायालय की पूर्ण बैठक में एक प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें यह आवश्यक कर दिया गया कि उच्चतम न्यायालय के सभी न्यायाधीशों को भारत के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष अपनी संपत्ति की घोषणा करनी पड़ेगी। सुभाष चंद्र अग्रवाल ने आरटीआई अधिनियम के तहत सीपीआईओ से इस प्रस्ताव की एक प्रति मांगी। उन्होंने उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों की संपत्तियों का ब्यौरा भी मांगा। जब सीपीआईओ ने यह जानकारी देने से इनकार कर दिया, तब अग्रवाल ने केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) से आग्रह किया; और सीआईसी ने यह निर्देशित किया कि संपत्ति संबंधी ब्यौरा दिया जाए। सीपीआईओ ने सीआईसी के आदेश को दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी, जिसने 2010 में अग्रवाल के पक्ष में निर्णय दिया और यह घोषित किया कि भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद एक एक लोक प्राधिकारी है जो आरटीआई अधिनियम के अधीन आता है। उच्च न्यायालय ने कहा कि संबंधित सूचना की घोषणा सीजेआई द्वारा की जाएगी और ऐसी घोषणा की विषयवस्तु आरटीआई अधिनियम के अधीन ‘सूचना’ की परिभाषा के तहत आएगी और सीजेआई ऐसी सूचना किसी न्यासीय क्षमता में धारित नहीं कर सकता। इसलिए, 1997 के प्रस्ताव के अनुसरण में न्यायाधीशों द्वारा संपत्तियों की घोषणा को ‘निजी सूचना’ के रूप में माना जाएगा जो आरटीआई अधिनियम के खंड 8(1)(ञ) के तहत विहित कार्यवाही के अनुरूप अभिगम्य हो सकती है। सीपीआईओ ने उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की।
भारत के उच्चतम न्यायालय के सीपीआईओ ने (i) और (iii) संबंधी मामलों से संबद्ध सूचनाएं इस आधार पर देने से मना कर दिया कि मांगी गई सूचनाएं, उच्चतम न्यायालय के लेखागार में नहीं हैं या उपलब्ध नहीं हैं। अपील करने पर, केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) द्वारा सूचना के खुलासे का निर्देश दिया गया। तत्पश्चात भारत के उच्चतम न्यायालय के सीपीआईओ ने उच्चतम न्यायालय में अपील की।
मुद्दे पर विचार करने के बाद उच्चतम न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की पीठ ने मामले के दर्ज होने के 10 वर्षों के पश्चात, 2019 में अपना फैसला दिया।
उच्चतम न्यायालय का फैसला
उच्चतम न्यायालय ने सर्वसम्मति से किए गए फैसले में कहा कि ‘‘पारदर्शिता, न्यायिक स्वतंत्रता का अवमूल्यन नहीं है’’, जैसा कि इसने दिल्ली उच्च न्यायालय के उस फैसले को बनाए रखा, जिसमें मुख्य न्यायाधीश के पद को आरटीआई के दायरे में रखा गया था। यदि कोई आरटीआई आवेदन दायर किया गया हो तो भारत के मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों की संपत्ति को सार्वजनिक करना होगा।
आरटीआई अधिनियम के खंड 2(च) के तहत, सूचना का अभिप्राय ‘‘इलेक्ट्रॉनिक रूप में संग्रहित अभिलेख, दस्तावेज, ज्ञापन, ई-मेल, मत, सलाह, प्रेस विज्ञप्ति, परिपत्र, आदेश, अभिलेख पुस्तिका, अनुबंध, प्रतिवेदन, पत्र, नमूने, मॉडल और किसी प्राइवेट निकाय से संबंधित ऐसी सूचना सहित किसी रूप में रखी गई सामग्री से है, जिस तक तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य कानून के तहत किसी लोक प्राधिकारी की पहुंच हो सकती है।’’
‘लोक प्रधिकारी’ का तात्पर्य संविधान के अधीन या द्वारा, और संसद/राज्य विधान-मंडल द्वारा निर्मित किसी अन्य कानून द्वारा या समुचित सरकार द्वारा जारी अधिसूचना या जारी आदेश द्वारा गठित या स्थापित कोई प्राधिकारी या निकाय या स्वायत्त सरकारी संस्था से है।
न्यायाधीशों की नियुक्ति/उन्नयन/स्थानांतरण से संबंधित अन्य मामलों के संबंध में न्यायालय ने कहा कि नियुक्तियों पर कॉलेजियम द्वारा लिए गए अंतिम निर्णयों का आरटीआई अधिनियम के तहत खुलासा किया जाएगा, लेकिन भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा निर्णय पर पहुंचने के लिए अंगीकार किए गए उपायों और विचारों का खुलासा करना आवश्यक नहीं होगा। न्यायाधीश रमण ने कहा कि आरटीआई का प्रयोग निगरानी के एक साधन के रूप में नहीं किया जा सकता और पारदर्शिता पर विचार करते समय न्यायिक स्वतंत्रता का ध्यान रखना होगा।
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अभ्यर्थी के विवरण, डेटा और ब्यौरे को प्रस्तुत करने के मामले में न्यायसीय संबंध को ध्यान में रखते हुए लोकहित परीक्षण लागू होगा और ऐसे खुलासों के परिणामस्वरूप अभ्यर्थी या सूचना प्रदाता के निजता के अधिकार पर हमला तथा गोपनीयता के कर्तव्य के भंग होने का भी ध्यान रखा जाएगा। इसमें चुनौती लोक, सुसंगत और महत्वपूर्ण सूचना को निजी, असंगत और गैर-जरूरी मामलों से अलग करने की है। निर्णय व्यापक रूप से न्यायाधीशों के निजता के अधिकार और न्यायपालिका की स्वतंत्रता के पक्ष में होते हैं, जो आरटीआई अधिनियम के तहत प्रश्नों को अनुमति देने का आधार होते हैं।
हालांकि, निर्णय के दौरान, न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने इस बात पर बल दिया कि नियुक्ति प्रक्रिया में लोगों के विश्वास में वृद्धि होगी यदि मस्तिष्क में आने वाले तात्विक मानकों को निरूपित किया जाएगा और लोगों के बीच रखा जाएगा। निर्मित मानकों का प्रचार और अनुप्रयोग न्यायपालिका और सरकार के भीतर सभी स्तरों पर निर्वाचन में पारदर्शिता के उच्च स्तर को स्थापित करेगा और जवाबदेही को प्रोत्साहित करेगा। उनकी राय में, मानक उच्चतर न्यायिक पद के लिए जिला न्यायपालिका के न्यायाधीशों के मूल्यांकन के लिए अनुसरण किए गए मापदंडों को भी आकार प्रदान कर सकते है। विशिष्ट रूप से योग्यता, शुचिता और न्यायिक निष्पादन के संदर्भ में उच्च न्यायिक पद पर उन्नयन के लिए न्यायिक अनुभव वाले व्यक्तियों के आधार का खुलासा करना एक महत्वपूर्ण लोकहित है। उनका मानना था कि न्यायिक नियुक्तियों में अपनाए गए मापदंड को जनता के सम्मुख रखने से आरटीआई अधिनियम की धारा 4 का उद्देश्य एवं आदेश की पूर्ति होगी, प्रक्रिया में लोगों का विश्वास बढ़ेगा और प्रक्रिया में प्रवेश के प्रति असंगत चिंताओं के विरुद्ध रक्षोप्राय प्रदान करेगा। उन्होंने बताया कि न्यायिक स्वतंत्रता को गोपनीयता से सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहाः ‘‘जवाबदेही के सुधारों को लाने में विफलता न्यायालयों की निष्पक्षता पर विश्वास को कम करेगी, महत्वपूर्ण न्यायिक कार्यों को हानि पहुंचाएगी। पारदर्शिता और सूचना के अधिकार अत्यावश्यक रूप से स्वयं विधि के शासन से जुड़े हैं।’’
हालांकि, इस निर्णय ने स्पष्टता की कमी के कारण चिंताएं भी पैदा की हैं, विशेषकर आरटीआई अधिनियम के अंतर्गत प्रकटीकरण से छूट निर्धारित करने की प्रक्रिया के संबंध में।
सबसे पहले, उच्चतम न्यायालय ने सार्वभौमिक रूप से स्वीकार्य आरटीआई अनुरोधों की एक विस्तृत सूची प्रदान नहीं की। इसके बजाय, प्रत्येक अनुरोध का मूल्यांकन व्यक्तिगत रूप से सीपीआईओ द्वारा किया जाएगा, जिसका कार्य सूचना के अधिकार को गोपनीयता और निजता के अधिकारों से संतुलित करना है। इस मूल्यांकन प्रक्रिया में आरटीआई अधिनियम की धारा 8(1) और 11 में उल्लिखित छूटों पर विचार करना शामिल है, जिनमें व्यक्तिगत सूचना और अन्य संवेदनशील डेटा की सुरक्षा के प्रावधान शामिल हैं। तथापि, ये छूट पूर्ण नहीं हैं और इन्हें रद्द किया जा सकता है यदि प्रकटीकरण को व्यापक लोक हित में माना जाता है।
इस बारे में अविलंब चिंता उत्पन्न होती है कि क्या सीपीआईओ के पास व्यापक लोक हित का आकलन करने के लिए आवश्यक विशेषज्ञता है, विशेषकर जब इसमें जटिल संवैधानिक व्याख्या शामिल है। उदाहरण के लिए, निर्णयों में मौलिक अधिकारों के दावों की एक-दूसरे के समक्ष तुलना करनी पड़ सकती है, जैसा कि निजता के अधिकार के संबंध में के.एस. पुट्टास्वामी मामले में खुलासा किया गया था। सीपीआईओ जैसे अर्ध-न्यायिक अधिकारियों द्वारा इस तरह के विधिक परीक्षणों का अनुप्रयोग उनके परीक्षण की पर्याप्तता के बारे में प्रश्न उठाता है।
इसके अलावा, यह निर्णय उच्चतम न्यायालय को प्रकटीकरण पर विवेकाधीन शक्ति प्रदान करता प्रतीत होता है, विशेष रूप से जब धारा 8(1) के तहत छूट खंडों को लागू किया जाता है। यह विवेकाधिकार प्रक्रिया को और जटिल बनाता है, क्योंकि यह स्पष्ट नहीं है कि न्यायालय में ऐसे निर्णय कौन लेगा। यह अस्पष्टता निर्णय लेने में इस कमी को दूर करने के लिए लोक प्राधिकारियों द्वारा नियमों का मसौदा तैयार करने की आवश्यकता उत्पन्न करती है।
सीपीआईओ और लोक प्राधिकरणों के बीच संभावित संघर्ष स्पष्ट हो जाता है, विशेष रूप से इस बात को लेकर कि यह कौन निर्धारित करता है कि कोई छूट प्रावधान लागू होता है या नहीं। यह देखते हुए कि नागरिकों को सीपीआईओ के माध्यम से आरटीआई अनुरोध दायर करना चाहिए, एक जोखिम यह है कि कुछ अनुरोध लोक प्राधिकरण के संबंधित अधिकारियों तक कभी नहीं पहुंच पाएंगे यदि सीपीआईओ को विश्वास न हो कि छूट लागू होती है। यह सीपीआईओ द्वारा गलत प्रकटीकरण की संभावना को जन्म देता है, जो छूट का न्यायनिर्णयन करने के अधिकार को लेकर विवाद में वृद्धि करता है।
निष्कर्ष
संक्षेप में, हालांकि यह निर्णय आरटीआई अधिनियम के दायरे का विस्तार करता है, किंतु यह नई जटिलताओं को भी सामने लाता है। जहां एक ओर, यह न्यायालय को व्यापक लोक हित निर्धारित करने हेतु विवेकाधिकार प्रदान करता है; वहीं दूसरी ओर, यह सीपीआईओ को सूचना को प्रकट करने की शक्ति दिए बिना उसके लिए जटिल कानूनी व्याख्या में शामिल होने को आवश्यक बनाता है। इन मुद्दों को संबोधित करने के लिए, न्यायालय को आरटीआई अनुरोधों को संसाधित करने के लिए स्पष्ट नियम बनाने चाहिए, विशेष रूप से अधिनियम की धारा 8(1) के तहत छूट के संबंध में, ताकि अनुचित, प्रकटीकरण को रोका जा सके और पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित की जा सके।
कुल मिलाकर, न्यायालय ने जो भी अनुमति दी है वह सशर्त है और न्यायालय तक जाने की सीमित पहुंच है। हालांकि, यह भी लोगों के एक महत्वपूर्ण अधिकार का उन्नयन है। चाहे धीरे-धीरे ही सही, न्यायपालिका में पारदर्शिता के लिए दरवाजे खोल दिए गए हैं। उच्चतम न्यायालय ने पारदर्शिता और अपनी स्वतंत्रता की सुरक्षा के बीच एक संतुलन स्थापित करने की आवश्यकता को रेखांकित किया। निर्णय ने यह सुनिश्चित किया कि सेवारत न्यायाधीशों की निजी संपत्ति के विवरण का खुलासा अब उनकी निजता के अधिकार का कोई उल्लंघन नहीं माना जाएगा।
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