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दलबदल विरोधी कानून में संशोधन की आवश्यकता

कभी-कभी, कोई विधायक या सांसद कुछ व्यक्तिगत लाभ, जो कि अत्यधिक धनराशि का प्रलोभन या अधिक राजनीतिक शक्ति हो सकती है, प्राप्त करने हेतु एक राजनीतिक दल को छोड़कर दूसरे राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है। इसे राजनीतिक दल-बदल के नाम से जाना जाता है। इस प्रक्रिया में वह विश्वास खत्म हो जाता है जो दल-बदलू जनप्रतिनिधि पर उसके निर्वाचन क्षेत्र के लोग जता चुके होते हैं। राजनीतिक दल-बदल की स्थिति में, सरकार अपना ध्यान देश के प्रशासन पर केंद्रित नहीं रख सकती। इसके बजाय, इसका मुख्य उद्देश्य अपने विधायकों/सांसदों को एकजुट रखना बन जाता है ताकि वे किसी अन्य राजनीतिक दल में शामिल न हो जाएं। इससे राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न होती है जो हमारे लोकतंत्र की नींव को कमजोर करती है।

पृष्ठभूमि

राजनीतिक दल-बदल वर्ष 1951, जब पहला आम चुनाव हुआ था, से भारतीय राजनीतिक व्यवस्था का एक अंग रहा है। उस समय, कांग्रेस के अलावा कई अन्य राजनीतिक दल उभरे। पहले आम चुनाव से लेकर चौथे आम चुनाव तक लगभग 542 विधायकों ने अधिक धनराशि एवं सत्ता के लिए अपने राजनीतिक दल बदल लिए। हालांकि, 1967 में यह पहली बार था जब गया लाल के दल-बदल मामले ने राजनीतिक नेताओं का ध्यान आकर्षित किया। 1967 में नवगठित हरियाणा में पहले आम चुनावों के दौरान, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) ने 81 में से 48 सीटों के मामूली बहुमत से जीत प्राप्त की। गया लाल एक निर्दलीय विधायक थे, जो चुनाव जीतने के बाद पहले कांग्रेस में शामिल हुए और फिर उसी दिन अपने दल से त्यागपत्र दे दिया। 15 दिनों के बाद, वे दूसरे दल, युनाइटेड फ्रंट, में शामिल हो गए। उसके बाद पुनः दल-बदल करते हुए, वे कांग्रेस में फिर से शामिल हो गए, लेकिन नौ घंटे के भीतर, वे फिर से कांग्रेस से अलग हो गए और पॉपुलर फ्रंट में शामिल हो गए। इस प्रकार, उन्होंने एक पखवाड़े (फोर्टनाइट) के भीतर तीन बार विभिन्न दलों के प्रति अपनी निष्ठा बदली। इसके बाद, ‘आया राम, गया राम’ वाक्यांश गढ़ा गया और राजनीतिक दल-बदल को संदर्भित करने के लिए इसका प्रयोग किया जाने लगा।

इसके बाद के वर्षों में भी, दल-बदल के कई अन्य मामले सामने आए। इस प्रकार, राजनीतिक स्थिरता लाने और राजनीतिक अनैतिकता को समाप्त करने के लिए दल-बदल विरोधी कानून लाने की आवश्यकता महसूस की गई।

दल-बदल विरोधी कानून क्या है?

1985 में, भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नेतृत्व में, संसद द्वारा 52वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम द्वारा दल-बदल विरोधी कानून पारित किया गया। परिणामस्वरूप, भारत के संविधान में दसवीं अनुसूची, जो दल-बदल विरोधी कानून से संबद्ध है, शामिल की गई। इसका मुख्य उद्देश्य सांसदों और विधायकों को अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु राजनीतिक दल बदलने से रोककर भारत की राजनीतिक व्यवस्था में स्थिरता लाना था। इस कानून में प्रावधान है कि विधायक, चाहे संसद में या राज्य विधान सभाओं में हों, दल-बदल के आधार पर निरर्ह किए जा सकते हैं। यह कानून औपचारिक रूप से 01 मार्च, 1985 और फिर 2002 में लागू किया गया था।

दल-बदल विरोधी कानून के प्रावधान

  • दल-बदल विरोधी कानून के अनुसार, किसी राजनीतिक दल का सदस्य संबंधित सदन (लोक सभा/राज्य सभा/विधान सभा/विधान परिषद) से दल-बदल के निम्नलिखित आधारों के कारण निरर्ह घोषित किया जाएगाः
    • यदि वह औपचारिक रूप से अपना त्यागपत्र प्रस्तुत न करने के बावजूद, स्वेच्छा से ऐसे राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता हो। अर्थात, यदि सदन के बाहर उस सदस्य के आचरण का निरीक्षण कर सरलता से यह समझा जा सकता हो कि उसने स्वेच्छा से, अर्थात औपचारिक रूप से त्यागपत्र दिए बिना ही, संबद्ध राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ दी है, तो उसे दल-बदल विरोधी कानून के तहत निरर्ह ठहराया जा सकता है।
    • यदि वह अपने राजनीतिक दल द्वारा जारी व्हिप का उल्लंघन करता है। अर्थात, यदि वह राजनीतिक दल द्वारा जारी किसी भी निर्देश के विपरीत अपना वोट डालता है या सदन में अपना वोट डालने से परहेज करता है, तो उसे निरर्ह घोषित कर दिया जाएगा। हालांकि, यदि वह अपने दल में अधिकृत व्यक्ति से पूर्व अनुमति लेता है या ऐसी घटना के 15 दिनों के भीतर उसके दल द्वारा उसके उल्लंघन को स्वीकार कर लिया जाता है, तो उसे निरर्ह नहीं ठहराया जाएगा।
  • यदि सदन का कोई निर्दलीय सदस्य जो किसी भी राजनीतिक दल से संबंधित न हो लेकिन चुनाव के बाद किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है, तो उसे दल-बदल विरोधी कानून के तहत निरर्ह घोषित कर दिया जाएगा।
  • यदि किसी सदन का कोई मनोनीत सदस्य अपने नामांकन की तारीख से छह महीने के बाद किसी राजनीतिक दल में शामिल होता है, तो उसे दल-बदल विरोधी कानून के तहत निरर्ह घोषित कर दिया जाएगा। तथापि, वह अपने नामांकन से छह महीने की अवधि के भीतर किसी राजनीतिक दल में शामिल हो सकता है और उसे निरर्ह नहीं ठहराया जाएगा।

निरर्ह (Disqualify) घोषित सदस्य दोबारा उसी सदन का सदस्य बनने हेतु किसी भी राजनीतिक दल के टिकट से चुनाव लड़ सकता है।


दल-बदल विरोधी कानून के तहत किसी विधायी सदस्य को कौन निरर्ह घोषित कर सकता है?

सदन के अध्यक्ष, अर्थात लोक सभा/राज्य सभा/विधान सभा/विधान परिषद के पीठासीन अधिकारी के पास दल-बदल के आधार पर किसी विधायक को निरर्ह घोषित करने की शक्ति होती है। लेकिन भ्रष्टता या दुर्भावना के मामले में अध्यक्ष/सभापति का निर्णय न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन होगा।

दल-बदल विरोधी कानून के अपवाद

दल-बदल विरोधी कानून के कुछ अपवाद हैं, जिनके तहत विधायकों को निरर्ह ठहराए बिना अपना दल बदलने की अनुमति होती हैः

  • जब कोई राजनीतिक दल अपने कम-से-कम दो-तिहाई विधायकों की सहमति से किसी अन्य राजनीतिक दल में विलय करता हो तो जो सदस्य किसी अन्य दल में विलय करते हैं या मूल दल के साथ रहते हैं, उन्हें निरर्ह नहीं ठहराया जाएगा। यहां तक कि जो सदस्य विलय करने से मना कर देते हैं और एक अलग समूह के रूप में काम करना चाहते हैं, उन्हें भी भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत निरर्ह नहीं ठहराया जाएगा।
  • दल-बदल विरोधी कानून के अंतर्गत लोक सभा के अध्यक्ष/उपाध्यक्ष, या राज्य सभा के सभापति/उपसभापति, या विधान परिषद के अध्यक्ष/उपाध्यक्ष, या विधान सभा के अध्यक्ष/उपाध्यक्ष के रूप में निर्वाचित व्यक्ति निम्नलिखित आधार पर निरर्ह नहीं होगाः
    • यदि वह चुनाव के बाद अपने राजनीतिक दल से त्यागपत्र दे देता है या उस संवैधानिक पद पर बने रहने तक उस दल या किसी अन्य राजनीतिक दल में दोबारा शामिल नहीं होता है।
    • यदि वह संवैधानिक पद से त्यागपत्र देने के बाद उस राजनीतिक दल में फिर से शामिल हो जाता है जिसमें वह पहले था। हालांकि, यदि ऐसा कोई विधायक संवैधानिक पद का त्याग करने के बाद किसी अन्य राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है, तो उसे भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत निरर्ह घोषित कर दिया जाएगा।
    • यद्यपि पहले राजनीतिक दलों को विघटन की अनुमति थी, तथापि अब इस पर रोक लगा दी गई है।

संविधान (बावनवां संशोधन, अधिनियम) 1985 के अनुसार, यदि किसी राजनीतिक दल के कम-से-कम एक-तिहाई विधायक किसी अन्य दल में शामिल होने के लिए सहमत होते हैं, तो इसे ‘विलय’ माना जाता था। लेकिन बाद में, संविधान (इक्यानवेवां) संशोधन, अधिनियम) 2003 में इसे प्रतिस्थापित कर दिया गया। इसलिए वर्तमान में, यदि किसी राजनीतिक दल के-कम-से कम दो-तिहाई निर्वाचित सदस्य किसी अन्य राजनीतिक दल में विलय का निर्णय लेते हैं, तो इसे ‘विलय’ माना जाएगा।


दल-बदल विरोधी कानून के संबंध में उच्चतम न्यायालय की अनुशंसाएं

  1. दल-बदल विरोधी कानून में ऐसी कोई निश्चित अवधि नहीं बताई गई है जिसके दौरान सदन के अध्यक्ष/सभापति (स्पीकर) द्वारा दल बदलने वाले सदस्यों को निरर्ह ठहराने की प्रक्रिया पूरी की जानी चाहिए। यदि कोई विधायक अपने राजनीतिक दल से त्यागपत्र दे देता है, तो उसे निरर्ह घोषित करना सदन के अध्यक्ष/सभापति का उत्तरदायित्व है। लेकिन यदि अध्यक्ष/सभापति सत्तारूढ़ दल का सदस्य हो और दल बदलने वाला सदस्य सत्तारूढ़ दल का समर्थन करता हो तो अध्यक्ष/सभापति कार्रवाई नहीं करता है, इसके बजाय, वह निरर्हता की प्रक्रिया को स्थगित कर देता है। हालांकि, यदि दल बदलने वाला सदस्य सत्ता पक्ष के विरुद्ध हो, तो अध्यक्ष/सभापति तुरंत उसे निरर्ह घोषित कर देता है। इस प्रकार, अध्यक्ष/सभापति अपने निर्णय में पक्षपाती हो सकता है। उदाहरण के लिए, मणिपुर में, ओकराम हेनरी कांग्रेस के टिकट पर जीतकर मणिपुर की विधान सभा के सदस्य बने, लेकिन बाद में उन्हें भाजपा के कैबिनेट मंत्री के रूप में चुना गया। अध्यक्ष ने निरर्हता प्रक्रिया में तीन वर्ष की देरी की। आखिरकार विधायक को निरर्ह ठहराने के लिए उच्चतम न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा।

सुझाव: उच्चतम न्यायालय ने अनुशंसा की कि अध्यक्ष को तीन महीने के भीतर दल बदलने वाले सदस्यों की निरर्हता पर निर्णय लेना चाहिए। हालांकि, यदि कोई अध्यक्ष ऐसा करने में विफल रहता हो तो ऐसा कोई कानून नहीं है जो उसे उत्तरदायी ठहराए। इसलिए, इससे निपटने के लिए एक कानून बनाया जाना चाहिए।

  1. यह अनिश्चित है कि अध्यक्ष एक राजनीतिक व्यक्तित्व या संवैधानिक व्यक्ति है। उदाहरण के लिए, मणिपुर विधान परिषद के सदस्य टी. श्याम कुमार, जो कांग्रेस से संबद्ध थे, भाजपा में शामिल हो गए। हालांकि, अध्यक्ष ने उन्हें निरर्ह नहीं ठहराया। इसके अलावा, उन्हें मणिपुर में वन मंत्री के रूप में नियुक्त किया गया। उनके विरुद्ध याचिका दायर होने के बावजूद अध्यक्ष ने उन पर कोई कार्रवाई नहीं की। उन्होंने सत्तारूढ़ दल का समर्थन करने के लिए पक्षपातपूर्ण तरीके से काम किया। इसलिए, इस मामले को उच्चतम न्यायालय में ले जाया गया। इसकी प्रतिक्रिया में, उच्चतम न्यायालय के एक न्यायाधीश ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 142, जो यह उपबंध करता है कि पूर्ण न्याय प्रदान करने के लिए, उच्चतम न्यायालय कोई भी आदेश जारी कर सकता है, के अंतर्गत एक विशेष शक्ति का प्रयोग किया। इसके बाद, उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि टी. श्याम कुमार को मंत्री पद से पदच्युत कर दिया जाए और वे विधान सभा में प्रवेश नहीं कर सकेंगे। अंततः, विधान सभा अध्यक्ष को झुकना पड़ा और उन्होंने दल-बदल करने वाले सदस्य को निरर्ह घोषित कर दिया।
    उच्चतम न्यायालय ने यह उल्लेख किया कि यह समय की मांग है कि संसद को इस पर पुनर्विचार करना चाहिए कि क्या अध्यक्ष/सभापति, जो किसी विशेष राजनीतिक दल से संबद्ध होते हैं, को दल-बदल कानून के तहत दल बदलने वाले सदस्यों की निरर्हता पर निर्णय लेने का अर्ध-न्यायिक प्राधिकार दिया जाना चाहिए।

सुझाव: भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत दल बदलने वाले सदस्य को निरर्ह ठहराने की शक्ति राष्ट्रपति या राज्यपाल को दी जानी चाहिए जो भारत निर्वाचन आयोग (ईसीआई) द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के आधार पर निर्णय लेंगे। ईसीआई के निर्णय, जैसा भी मामला हो, का राष्ट्रपति/राज्यपाल द्वारा अनुपालन किया जाना चाहिए।

  1. जब कोई राजनीतिक दल सरकार बनाता है, तो राज्यपाल उस पार्टी को विधान सभा में विश्वास प्रस्ताव पारित कर अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए कहते हैं। यदि वह दल विश्वास प्रस्ताव को बहुमत से पारित कर देती है, तो दल सरकार बना सकती है; वरना उसे त्यागपत्र देना पड़ता है। परंतु कभी-कभी सरकार और विपक्ष दोनों के पास बहुमत नहीं होता। ऐसी स्थिति में विधान सभा भंग कर दी जाती है और जनता को फिर से चुनावी प्रक्रिया में भाग लेना पड़ता है, जो बहुत महंगी होती है।

सुझाव: विशेषज्ञों ने सुझाव दिया है कि विधान सभा को भंग करने के बजाय के अल्पमत सरकार द्वारा शासन चलाना जारी रखना चाहिए। राज्यपाल को विपक्ष को सरकार को भंग करने के लिए साधारण बहुमत से अविश्वास प्रस्ताव पारित करने के लिए कहना चाहिए, साथ ही विश्वास प्रस्ताव पारित करके यह सिद्ध करना चाहिए कि उसके पास सरकार बनाने के लिए बहुमत है। इससे सरकार को बार-बार चुनाव कराने से रोका जा सकेगा।

  1. दो-तिहाई विलय के मामले में, पहले एक राजनीतिक दल को दूसरे राजनीतिक दल के साथ विलय का निर्णय लेना चाहिए और फिर उसके दो-तिहाई विधायकों को विलय के लिए अपनी सहमति देनी चाहिए। इन विधायकों को दल-बदल विरोधी कानून के तहत निरर्ह नहीं ठहराया जाएगा। परंतु वास्तव में, दलों का विलय नहीं हो रहा है। लेकिन इसके केवल दो-तिहाई विधायक धन एवं सत्ता के प्रलोभन में एक नया दल बनाने के लिए दूसरे राजनीतिक दल में विलय कर रहे हैं। यह भ्रष्टाचार है। उदाहरण के लिए, गोवा में एक राजनीतिक दल था, जिसके तीन विधायक थे। इसके दो-तिहाई अर्थात दो ने बीजेपी में विलय करने का निर्णय लिया। परंतु दल ने समग्र रूप से भाजपा के साथ विलय का निर्णय नहीं किया। यह राजनीतिक अनैतिकता है। विधायकों ने अतिरिक्त आय और अधिक शक्ति अर्जित करने के लिए ही दूसरे दल में विलय का निर्णय लिया था। दुर्भाग्य से, न्यायालय ने इसकी अनुमति दे दी जैसा कि दल-बदल विरोधी कानून यहां लागू नहीं होता है।

सुझाव: भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची से दो-तिहाई विलय वाले खंड को समाप्त किया जाना चाहिए।

  1. दल-बदल विरोधी कानून के कारण, प्रतिनिधिक लोकतंत्र कमजोर हो गया है, जैसा कि सांसदों/विधायकों को किसी भी विधायी मामले में कोई अधिकार प्राप्त नहीं है और उन्हें प्रत्येक स्थिति में दल द्वारा निर्धारित मत से सहमत होना पड़ता है। वे नीतियों, बजट या बिलों का विश्लेषण कर उस पर अपना स्वतंत्र निर्णय नहीं दे सकते। इससे विधान-मंडलों का अवमूल्यन होता है। इसके अलावा, यदि सांसद/विधायक अपने दल से असहमत हों, तो उन्हें विधान-मंडल में अपनी सीटों से वंचित होना पड़ सकता है।

सुझाव: यदि कोई विधायक किसी दल की नीति या विधेयक के संबंध में अपना भिन्न मत रखता हो, तो वह त्यागपत्र दे सकता है और किसी अन्य दल के टिकट से चुनाव लड़ सकता है।

बालचंद्र एल. जारकीहोली और अन्य बनाम बी. एस. येदियुरप्पा और अन्य (2011) मामले में, यह स्पष्ट रूप से विनिर्दिष्ट किया गया कि यदि किसी राजनीतिक दल के सदस्यों के बीच कोई आंतरिक मतभेद हो तो इसे दल-बदल का आधार नहीं माना जा सकता है।

  1. दल-बदल विरोधी कानून के कार्यान्वयन के कारण, संसदीय लोकतंत्र भी खतरे में है जैसा कि विधायक अब उन मतदाताओं, जिन्होंने उनका निर्वाचन किया है, के प्रति उत्तरदायी होने के बजाय मुख्य रूप से अपने-अपने राजनीतिक दलों के प्रति उत्तरदायी होते हैं।

सुझाव: राजनीतिक दलों को अपने दल के भीतर लोकतंत्र विकसित करने के साथ-साथ अपने सदस्यों के लिए संचार और विकास के अवसरों को सुविधाजनक बनाने की दिशा में काम करना चाहिए।

निष्कर्ष

दल-बदल विरोधी कानून के कमजोर होने के कारण भारतीय राजनीतिक व्यवस्था के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए जोखिम उत्पन्न हो सकता है। इसमें कुछ संशोधन करके इसे सुदृढ़ किया जाना चाहिए ताकि देश में राजनीतिक स्थिरता लाई जा सके।

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