चुनावी घोषणापत्र को साधारणतः किसी व्यक्ति, समूह या राजनीतिक दल के मुद्दों, उद्देश्यों या विचारों की प्रकाशित घोषणा के रूप में परिभाषित किया जाता है। इसे चुनाव से पहले किसी दल द्वारा लोगों को अपने मत से अवगत कराने और जनहित के विभिन्न मुद्दों पर अपना पक्ष रखने के साथ-साथ सत्ता में आने पर वह इन मुद्दों से किस प्रकार निपटेगा—इनके बारे में जागरूक करने के लिए जारी किया जाता है। मतदाताओं से अपेक्षा की जाती है कि वे घोषणापत्रों में प्रस्तुत विभिन्न राजनीतिक दलों की विचारधाराओं, नीतियों और कार्यक्रमों की तुलना करें, तथा इस बारे में एक सूचित निर्णय लें कि उनकी अपनी अपेक्षाओं के लिए सबसे उपयुक्त क्या है।
1952 में जब भारत की स्वतंत्रता के बाद पहला आम चुनाव हुआ, तब से राजनीतिक दलों द्वारा चुनावी घोषणापत्र जारी किए जाते रहे हैं।
यदि चुनावी घोषणापत्र को सही ढंग से लागू किया जाता है तो बड़े पैमाने पर जनता की उच्चतम संकल्पनाएं पूरी होती हैं।
चुनावी घोषणापत्र का महत्व
एक चुनावी घोषणापत्र दल के दृष्टिकोण और विचारधारा, तथा इसके विचारों के बारे में आवश्यक जानकारी प्रदान करता है कि सत्ता में आने पर वह लोगों के लिए क्या करेगा। एक उपयोगी घोषणापत्र वास्तविक तथ्य प्रदान करेगा, न कि केवल सैद्धांतिक सपने दिखाएगा, ताकि मतदाता उस प्रकार की सरकार चुनने में सक्षम हो जो वे वास्तव में चाहते हैं। चुनावी घोषणापत्र राजनीतिक दलों के बीच प्रतिस्पर्धा का एक रूप हैं: जनता उस दल को चुनती है जिसका चुनावी घोषणापत्र उनकी महत्वाकांक्षाओं, जो जनता के मन में हैं, को उजागर करता है। मीडिया में बहस और चर्चा को बढ़ावा देकर, चुनावी घोषणापत्र मतदाताओं को और अधिक जागरूक कर सकते हैं।
चुनावी घोषणापत्र संबंधी समस्याएं
मतदाताओं को लुभाने या शासन के साधारण आदर्शों को प्रस्तुत करने के प्रयास में राजनीतिक दल अकसर चुनावी घोषणापत्र में आडंबरपूर्ण योजनाएं और नीतियां प्रस्तुत करते हैं। लेकिन इनमें यह जानकारी शामिल नहीं होती है कि इन्हें कैसे लागू किया जाएगा और राजकोष इन्हें किस प्रकार वित्तपोषित करेगा। इस प्रकार, चुनावी घोषणापत्र सरलता से बुनियादी विचार की उपेक्षा करते हैं।
इसके अलावा, हालिया समय में विभिन्न राजनीतिक दल लोगों को अपने पक्ष में मतदान करने के लिए प्रेरित करने हेतु अपने चुनावी घोषणापत्र में मुफ्त योजनाओं की पेशकश कर रहे हैं। विकासात्मक नीतियों की तुलना में मुफ्त योजनाओं को लागू करना आसान है। तथापि, इस बारे में कोई जानकारी नहीं दी जाती है कि मुफ्त योजनाओं को किस प्रकार वित्तपोषित किया जाएगा या राजकोष पर इसका कितना प्रभाव पड़ेगा। आखिरकार, जैसा कि करदाताओं के धन का उपयोग किया जाएगा, मतदाता को इसमें प्रयुक्त वित्त के बारे में जानने का अधिकार है।
चुनाव के बाद यदि गठबंधन की सरकार बनती है, तो गठबंधन में शामिल विभिन्न दलों द्वारा की गई वचनबद्धताओं को समायोजित करने की आवश्यकता होती है और कुछ को छोड़ना भी पड़ता है जैसा कि वे संगत नहीं होती हैं। अतः, एक तरह से, मतदाता उन प्रतिफलों से वंचित रह जाते हैं जिनकी आशा में उन्होंने किसी निश्चित राजनीतिक दल को वोट दिया था।
पूर्व में, कुछ दलों ने मतदान के दिन ही अपने घोषणापत्र जारी किए थे। स्पष्ट रूप से, मतदाताओं को संबंधित दल के विचारों को पढ़ने और समझने का समय नहीं मिल सका। इसके चलते भारत निर्वाचन आयोग (ईसीआई) ने 2019 के लोक सभा चुनावों के लिए अतिरिक्त दिशानिर्देश जारी किए, जिसमें कहा गया कि चुनावी घोषणापत्र मतदान की तारीख से 48 घंटे पहले जारी नहीं किए जा सकते।
अधिकांशतः, सत्ता में आने के बाद राजनीतिक दल चुनावी घोषणापत्र को नजरअंदाज कर देते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि घोषणापत्र में की गई प्रतिबद्धताओं को लागू करवाने के लिए कोई विधि या तंत्र नहीं है। न ही विधान-मंडल में विपक्ष इस मामले पर कोई सवाल उठाता है।
वर्ष 2013 में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति पी. सदाशिवम की न्यायपीठ के अनुसार, यदि भारतीय लोकतंत्र की गरिमा और सम्मान को अक्षुण्ण रखना है तो चुनावी घोषणापत्रों की घोषणाओं को विधिक रूप देना होगा और राजनीतिक दलों को जवाबदेह बनाना होगा। 2014 के आम चुनावों के लिए भारत निर्वाचन आयोग द्वारा जारी आदर्श आचार संहिता में ऐसे दिशानिर्देश थे जो दलों को उनके घोषणापत्रों में ऐसे वादे करने से रोकते थे जिनका मतदाताओं पर अनुचित प्रभाव पड़ सकता था। चूंकि, ये दिशा-निर्देश वैध रूप से प्रवर्तनीय नहीं होते हैं, इसलिए अधिकांश राजनीतिक दलों द्वारा इनका पालन नहीं किया जाता है। जैसा कि 2015 में भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायमूर्ति एच. एल. दत्तू और उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति अमिताव रॉय की न्यायपीठ ने बताया था, चूंकि ये घोषणापत्र वैध रूप से प्रवर्तनीय नहीं हैं, इसलिए न्यायालय वादों को पूरा न करने के संबंध में दायर याचिका पर विचार नहीं कर सकता।
अगस्त 2022 में, भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायमूर्ति एन. वी. रमना की अध्यक्षता वाली एक न्यायपीठ ने उच्चतम न्यायालय के पूर्ववर्ती दृष्टिकोण कि मतदाताओं को लुभाने के लिए राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव से पहले किए गए वादे लोक प्रतिनिधित्व (आरपी) अधिनियम, 1951 की धारा 123 (भ्रष्ट आचरण) के दायरे में नहीं आते हैं, का पुनर्विलोकन करने के लिए तीन न्यायाधीशों की न्यायपीठ गठित करने का आदेश दिया। दो न्यायमूर्तियों की न्यायपीठ ने एस. सुब्रमण्यम बालाजी मामले में दिए गए निर्णय में कहा था कि ‘‘यद्यपि विधि स्पष्ट है कि चुनावी घोषणापत्र में किए गए वादों का अर्थ आरपी अधिनियम की धारा 123 के तहत ‘भ्रष्ट आचरण’ के रूप में नहीं लगाया जा सकता, तथापि इस वास्तविकता से इनकार नहीं किया जा सकता कि किसी भी प्रकार की मुफ्त वस्तुओं का वितरण, निस्संदेह, सभी लोगों को प्रभावित करता है’’।
नवंबर 2023 में, उच्चतम न्यायालय को, याचिकाओं पर चर्चा करने के दौरान, बताया गया कि चुनाव से पहले राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त वस्तुएं देने के वादे करना रिश्वतखोरी के समान हैं और ये आरपी अधिनियम, 1951 के तहत चुनाव को रद्द करने का आधार हैं। वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसारिया ने तर्क दिया कि ऐसे वादे आरपी अधिनियम, 1951 की धारा 123(1)(क) के अंतर्गत आते हैं, जो रिश्वत को परिभाषित करता है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि ये वादे सार रूप से रिश्वत के रूप में काम करते हैं, जो मतदाताओं को अभ्यर्थी का समर्थन करने के लिए लुभाते हैं। उच्चतम न्यायालय ने चुनाव के दौरान ऐसे वादों का विरोध करने वाली याचिकाओं पर सुनवाई की, जिसमें अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा दायर की गई याचिका भी शामिल थी। उपाध्याय की याचिका में चुनाव चिह्नों पर रोक लगाने और ऐसे वादे करने वाले दलों का रजिस्ट्रीकरण रद्द करने के निर्देश देने की मांग की गई थी। उच्चतम न्यायालय ने इस मुद्दे पर व्यापक बहस की आवश्यकता को देखते हुए इस मामले को अतिरिक्त विचार-विमर्श के लिए तीन न्यायाधीशों की न्यायपीठ को भेज दिया।
घोषणापत्र को वैध रूप से प्रवर्तनीय बनाना
प्रश्न यह उठता है कि यदि मतदाताओं ने घोषणापत्र में कही गई बातों के आधार पर मतदान किया है, तो क्या वे यह अपेक्षा नहीं कर सकते हैं कि किसी विशेष राजनीतिक दल/दलों द्वारा गठित सरकार द्वारा की गई सभी प्रतिबद्धताओं को पूर्ण रूप से लागू किया जाएगा? यह केवल मुफ्त वस्तुओं का मुद्दा नहीं है; चुनावी घोषणापत्र में कई आदर्श वादे होते हैं, लेकिन उन्हें केवल इसलिए शामिल किया जाता है क्योंकि उनमें मतदाताओं की भावनाओं पर काम करने और उनकी अपेक्षाओं को बढ़ाने की क्षमता होती है। इन परिस्थितियों में, यह देखना और भी अधिक आवश्यक है कि वादों को लागू किया जाए।
यह तर्क दिया जा सकता है कि किसी राजनीतिक दल के लिए चुनाव से पहले वादा करते समय वित्तीय स्थिति सहित संपूर्ण समाधान देना संभव नहीं हो सकता है। हालांकि, इस स्थिति में, यदि दल अपने वादों के समर्थन में उचित डेटा और जानकारी प्राप्त करने के लिए शोध का लाभ नहीं उठा सकते हैं या करने में असमर्थ हैं, तो ऐसे वादे बिल्कुल भी नहीं किए जाने चाहिए।
यदि सरकारों को चुनावी घोषणापत्र में किए गए वादों को पूरा करने के लिए विवश किया जाता हैं, तो राजनीतिक दल ऐसे वादे करने की दिशा में आगे बढ़ेंगे जो असाधारण आश्वासन, जिन्हें सत्ता में आने के बाद पूरा करना मुश्किल होता है, देने के बजाय व्यावहारिक और सुविचारित हों।
यह सुझाव दिया गया है कि लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में ऐसे दिशा-निर्देशों को शामिल किया जा सकता है कि चुनावी घोषणापत्र में व्यापक रूप से क्या शामिल होना चाहिए—दीर्घकालिक और अल्पकालिक एजेंडे के साथ-साथ उन वादों को पूरा करने के लिए क्या वित्तीय आवश्यकताएं होंगी और उन्हें किस प्रकार पूरा किया जाएगा।
यह पहले से ही अधिकथित है कि केंद्र या राज्य में सत्ता में रहने वाला दल मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए चुनाव की तारीखों की घोषणा के बाद धन/अनुदान स्वीकृत करने, किसी योजना/परियोजना की आधारशिला रखने, बुनियादी ढांचे की विकास परियोजनाओं का वादा करने, सरकार में कोई विनिर्दिष्ट नियुक्तियां करने के लिए आधिकारिक शक्ति का दुरुपयोग नहीं करेगा। ऐसे दिशा-निर्देश हैं जो राजनीतिक दलों को यह सुनिश्चित करने का निर्देश देते हैं कि चुनावी घोषणापत्रों में भारत के संविधान के आदर्शों का उल्लंघन नहीं किया जाएगा, और ऐसे वादे नहीं किए जाएंगे जो ‘‘चुनावी प्रक्रिया की शुचिता को दूषित करते हैं या मतदाताओं पर उनके मताधिकार का प्रयोग करने में अनुचित प्रभाव डालते हैं।’’ परंतु इसका मतलब यह नहीं है कि दलों को उनके बड़े-बड़े और अधूरे वादों के लिए जवाबदेह बना दिया गया है।
उल्लेखनीय है कि बहुत कम लोग वास्तव में किसी राजनीतिक दल का घोषणापत्र पढ़ते हैं। हममें से अधिकांश के लिए, यह महज कागज का टुकड़ा है। ऐसा नहीं होना चाहिए। चुनावी घोषणापत्र चुनाव की राजनीतिक प्रक्रिया में अत्यंत महत्वपूर्ण होना चाहिए। यह तभी समझा जाएगा जब राजनीतिक दलों को उनके चुनावी घोषणापत्रों के प्रति जवाबदेह बनाया जाए।
आगे की राह
2013 में, कार्मिक, लोक शिकायत, कानून और न्याय संबंधी स्थायी समिति ने सुझाव दिया कि आचार संहिता (मॉडल कोड) को वैध रूप से बाध्यकारी बनाया जाए और लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में सम्मिलित किया जाए। इस तरह का कदम भारत निर्वाचन आयोग को राजनीतिक दलों को घोषणापत्रों में आडंबरपूर्ण वादे करने से रोकने का अधिकार देगा, जिन्हें व्यवहार में लाना मुश्किल है। यह देखा गया है कि यदि सरकार घोषणापत्र में किए गए वादों को पूरा करने में विफल रहती है तो मतदाता उस राजनीतिक दल को सत्ता से हटा देते हैं; हालांकि, अधूरे वादों के लिए अधिक स्पष्ट और त्वरित दंड होने चाहिए।
यह नियम भी बनाया जा सकता है कि निवर्तमान शासन वाला दल अपने घोषणापत्र में पिछले चुनाव के घोषणापत्र में किए गए वादों की प्रगति और स्थिति की समीक्षा करेगा।
ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के अनुसार, अध्ययनों से ज्ञात होता है कि स्वीडन जैसी उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में, घोषणापत्रों में किए गए वादों को पूरा करने की दर औसतन चार चुनावों में 82 प्रतिशत तक है। स्पेन और नीदरलैंड में भी चुनावी घोषणापत्र के वादों को पूरा करने की उच्च दर देखी गई है।
भारत निर्वाचन आयोग को दलों के घोषणापत्रों को जनता के सामने जारी करने से पहले उन्हें परखने और अनुमोदित करने की शक्ति दी जानी चाहिए, तथा आयोग को यह देखना चाहिए कि केवल बड़े पैमाने पर लोगों को प्रभावित करने वाली व्यापक नीतियों, जैसे स्वास्थ्य देखभाल, विदेश नीति, पर्यावरणीय मुद्दे और आर्थिक सुधार, पर ही चर्चा की जाए, न कि विशिष्ट लाभों पर। वित्तीय डेटा को शामिल करने की आवश्यकता है ताकि आधिकारिक जांच से यह ज्ञात हो सके कि कोई वादा कितना यथार्थवादी या व्यवहार्य है। भारत निर्वाचन आयोग को जनता के समक्ष घोषणापत्र जारी करने से पहले किसी भी आपत्तिजनक और भ्रामक प्रचार सामग्री की भी बारीकी से जांच कर लेनी चाहिए।
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