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भारत में भू-अवतलन क्षेत्र—कारण, प्रभाव, सुझाव एवं समाधान

-अवतलन (Land Subsidence)

भू-अवतलन और भूस्खलन जलविज्ञान तथा भूविज्ञान से संबंधित अत्यंत महत्वपूर्ण एवं जटिल घटनाएं हैं, जिन्हें प्रायः अनदेखा कर दिया जाता है क्योंकि अन्य आपदाओं के विपरीत भू-अवतलन क्रमिक रूप से धीरे-धीरे या किसी अत्यंत बड़े क्षेत्र में अचानक भूमि के धंसने के रूप में होता है।

नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए), यूएसए के अनुसार, भू-अवतलन शब्द, भूमिगत सामग्री के संचलन के परिणामस्वरूप भूमि की ऊपरी सतह के धंसने को संदर्भित करता है। भू-अवतलन को भूमि की सतह के ऊर्ध्वाधर अधोमुखी संचलन के रूप में परिभाषित किया गया है।

भू-अवतलन के कारण

भूजल भूमि की सतह की गहराई में मौजूद होता है, जहां यह चट्टानों की दरारों पर मृदा के छिद्रों में बने रिक्त स्थान को घेरता है। उन गइराइयों में जल पर दबाव पड़ता है, जो पृथ्वी की सतह को ऊपर की ओर धकेलता है, जिससे भूमि का भार जल और वहां मौजूद अन्य पदार्थों द्वारा साझा किया जाता है। जब भूजल का अत्यधिक दोहन किया जाता है तो भूमि के सतही भार का वहन केवल अन्य पदार्थ करते हैं, फलस्वरूप भू-अवतलन होता है।

भू-अवतलन खनन गतिविधियों के साथ-साथ जल, तेल, खनिज, प्राकृतिक गैस जैसे प्राकृतिक संसाधनों के संदोहन और बुनियादी ढांचों का भार मृदा की वहन क्षमता से अधिक होने जैसे मानव निर्मित कारणों के अलावा भूकंप, मृदा संहतिकरण, हिमानी समस्थितिक समंजन (Glacial isostatic adjustment), मृदा अपरदन, विलयन रंध्र (सिंकहोल) निर्माण, और पवन द्वारा संचित महीन मृदा में जल के मिलने (एक प्राकृतिक प्रक्रिया जिसे लोएस निक्षेप के रूप में जाना जाता है) जैसी प्राकृतिक घटनाओं के कारण भी हो सकता है। अवतलन बहुत बड़े क्षेत्रों—जैसे राज्य या बहुत छोटे क्षेत्रों जैसे किसी भवन में हो सकता है। मैदानी क्षेत्रों और शहरी क्षेत्रों में भू-अवतलन और भूस्खलन से अत्यधिक हानि हो सकती है।

यू.एस. जियोलॉजिकल सर्वे (यूएसजीएस) के अनुसार, विश्व भर में 80 प्रतिशत से अधिक भू-अवतलन का कारण भूजल का अत्यधिक दोहन है। जलभृत प्रणाली में भूजल निष्कर्षण प्रभावी अंतराकणिकीय दबाव (इंटरग्रेंगुलनर स्ट्रेस) को बढ़ाता है और मृदा के कणों के पुनर्विन्यास का कारण बनता है। इसके परिणामस्वरूप जलभृत संघनन और अंततः भू-अवतलन होता है। मेक्सिको, ईरान, चीन और भारत में हुए वृत्त अध्ययन, भू-अवतलन तथा भूजल निष्कर्षण के बीच उल्लेखनीय रूप से एक घनिष्ठ संबंध का संकेत देते हैं।

भूजल निष्कर्षण के कारण भू-अवतलन का पहला मामला 1990 के दशक की शुरुआत में अमेरिका के कैलिफोर्निया में सामने आया था।

भू-अवतलन के प्रभाव

  • जलवायु परिवर्तन [समुद्री स्तर में वृद्धि, तूफान सघनीकरण और झंझा महोर्मि (ज्वारीय आयाम में एक असामान्य बदलाव जो वायुमंडलीय कारकों द्वारा होता है)], भू-अवतलन और बढ़ते शहरीकरण के कारण शहर धंस रहे हैं।
  • शहर में अपर्याप्त जल निकासी प्रणालियों के कारण, भू-अवतलन से ऊपरी स्तरों पर मृदा जमा हो सकती है, जिससे शहर के बुनियादी ढांचे (सड़कें, पुल) को नुकसान हो सकता है और बाढ़ का खतरा उत्पन्न हो सकता है।
  • विशेषज्ञों के अनुसार, यह घरों और अन्य बुनियादी ढांचों सहित इमारतों को कमजोर कर सकता है, साथ ही संरचनाओं की नींव में विभंजन भी उत्पन्न कर सकता है।
  • जल प्रबंधन में व्यवधान और संबंधित परिणाम जैसे जलधाराओं, नहरों, नालों की प्रवणता में परिवर्तन, समुद्री जल का बढ़ना और पंप की शक्ति में वृद्धि।
  • डेल्टीय क्षेत्रों में खारे जल के अंतर्वेधन में वृद्धि, जोकि भू-अवतलन के कारण भूमि की ऊंचाई में कमी के कारण होता है, के कारण मीठे जल की उपलब्धता में कमी के परिणामस्वरूप कृषि भूमि के उत्पादन में गिरावट आती है।
  • भू-अवतलन रुकने से कभी-कभी अप्रत्याशित पर्यावरणीय समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं।
  • विशेषज्ञों का मानना है कि 2040 तक भू-अवतलन से विश्व की 8 प्रतिशत सतह और प्रमुख शहरों में रहने वाले 2 बिलियन लोग प्रभावित होंगे। यह विश्व के अन्य भागों की अपेक्षा एशिया क्षेत्र को अधिक प्रभावित करेगा।

भारत में भू-अवतलन की स्थिति

भारत के विशाल और ऊपजाऊ उत्तरी भू-भाग की सतह से भूजल खत्म होता जा रहा है। नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) के अनुसार, पिछले दशक में, उत्तर भारत में, भूजल में 88 मिलियन एकड़-फुट की गिरावट दर्ज की गई है। भारत में भू-अवतलन एक गंभीर मुद्दा है, विशेषकर उत्तरी मैदानी क्षत्रों में जहां भूजल के अत्यधिक निष्कर्षण से भूमि धंस सकती है। वैज्ञानिक सक्रिय रूप से अध्ययन कर रहे हैं कि किस प्रकार भूजल में कमी आने से उसके ऊपर की भूमि संकुचित हो रही है, जिससे जलभृतों (ऐसा भूमिगत क्षेत्र अथवा सरंध्र शैल-समूह जिसमें से कूप के द्वारा आवश्यकतानुसार भूमिगत जल प्राप्त किया जा सकता है) में अपरिवर्तनीय परिवर्तन हो रहे हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, जहां-जहां जलभृतों से जल कम होता जा रहा है, वहां भूमि अचानक या धीरे-धीरे धंस सकती है, जिससे भू-अवतलन हो सकता है।

भारत में सिंधु-गंगा के मैदान, जहां रेत और मृत्तिका की स्तरित परतें (स्ट्रैटिफाइड लेयर) हैं, में भू-अवतलन की अत्यधिक संभावना है। विशेषज्ञों के अनुसार, अनधिकृत विकास ने जल के प्राकृतिक प्रवाह को अवरुद्ध कर दिया है, जो अंततः नियमित भूस्खलन का कारण बन गया है।

भारत में भू-अवतलन के मामले

जनवरी 2023 में उत्तराखंड राज्य के जोशीमठ क्षेत्र में भू-अवतलन की घटना दर्ज  की गई थी। यह उत्तराखंड में 1,890 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। 1960 के दशक से ही जोशीमठ में अवतलन देखा गया है। राष्ट्रीय सुदूर संवेदन केंद्र (एनआरएससी) की एक रिपोर्ट के अनुसार, 27 दिसंबर, 2022 से लेकर 8 जनवरी, 2023 तक के 12 दिनों में उत्तराखंड के जोशीमठ के 5.4 सेमी. धंसने के कारण यहां भू-अवतलन में तेजी से वृद्धि हुई। एनआरएससी के अनुसार, अप्रैल 2022 से नवंबर 2022 तक के सात महीनों की अवधि में जोशीमठ में 8.9 सेमी. की धीमी गति से अवतलन दर्ज किया गया था। जनवरी 2023 में इस क्षेत्र को राज्य सरकार, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए), भारतीय भू वैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई) के प्रतिनिधियों द्वारा उच्चस्तरीय सम्मेलन में भू-अवतलन प्रभावित क्षेत्र के रूप में नामित किया गया।

जोशीमठ के अलावा, दिल्ली और उसके आस-पास के लगभग 100 वर्ग किमी. क्षेत्र में भू-अवतलन का जोखिम देखा गया है। भूजल दोहन के कारण शहर के कुछ हिस्से धंस रहे हैं, जिनमें से सबसे बड़ा क्षेत्र दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से केवल 800 मीटर की दूरी पर है। दिल्ली के कुछ हिस्सों, जैसे कि कापसहेड़ा, में भू-अवतलन देखा गया है। इसके अलावा, सूर्य विहार के फन एंड फूड वॉटरपार्क, तथा फरीदाबाद के राजा नाहर सिंह इंटरनेशनल क्रिकेट स्टेडियम और पीयूष महेंद्रा मॉल में भी भू-अवतलन देखा गया। दिल्ली-एनसीआर के अलावा, चंडीगढ़, अंबाला, गांधीनगर, झारखंड और कोलकाता सहित कई अन्य शहरों में भू-अवतलन दर्ज किया गया है।

भारत में भू-अवतलन संबंधी अध्ययन

जोशीमठ के धंसाव पर एम.सी. मिश्रा समिति: 18 सदस्यों वाली एम.सी. मिश्रा (महेश चंद्र मिश्रा) समिति का गठन वर्ष 1976 में यह पता लगाने के लिए किया गया था कि जोशीमठ क्यों धंस रहा है। इस समिति ने इस संबंध में विभिन्न सिफारिशें की—स्लिप जोन (भूस्खलन का वह क्षेत्र, जहां मृदा या चट्टान सक्रिय रूप से संचलित होती है) में कोई भी नया निर्माण नहीं किया जाना चाहिए। स्थान की स्थिरता का आकलन होने के पश्चात ही निर्माण की अनुमति दी जानी चाहिए, और ऐसे क्षेत्रों को अंकित करने से पहले उचित रूप से जांच की जानी चाहिए; भूस्खलन संभावित स्थानों पर कोई पेड़ नहीं काटा जाना चाहिए, न ही सड़कों की मरम्मत या कोई अन्य निर्माण कार्य करने के लिए खुदाई या विस्फोट करके पत्थरों को हटाया जाना चाहिए; मारवाड़ी और जोशीमठ के बीच का क्षेत्र, जोशीमठ रिजर्व फॉरेस्ट का निचला भाग और छावनी में व्यापक स्तर पर वृक्षारोपण किया जाना चाहिए।

दिल्ली एनसीआर में अध्ययन: भारत में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (दिल्ली, एनसीआर) जनसंख्या के मामले में सबसे तेजी से बढ़ते महानगरों में से एक है जो पेयजल की बढ़ती मांग के कारण गंभीर जल संकट का सामना कर रहा है। भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण, विशेष रूप से इसके असंगठित जलोढ़ निक्षेपों से, इस क्षेत्र में भूस्खलन का खतरा बना रहता है। इस संदर्भ में संयुक्त रूप से आईआईटी बॉम्बे, जर्मन रिसर्च सेंटर फॉर जियोसाइंस, और यूनिवर्सिटी ऑफ कैंब्रिज और सदर्न मेथोडिस्ट यूनिवर्सिटी, यूएस द्वारा 2022 में नेचर जर्नल में एक अध्ययन प्रकाशित किया गया, जिसका शीर्षक ‘‘ट्रैकिंग हिडन क्राइसिस इन इंडियाज कैपिटल फ्रॉम स्पेसः इंप्लिकेशन्स ऑफ अनसस्टनेबल ग्राउंडवाटर यूज’’ है। 

इस अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने वर्ष 2014-2020 के दौरान सेंटिनल-1 नामक उपग्रह से प्राप्त डेटासेट का उपयोग कर दिल्ली एनसीआर में भूमि की सतह की ऊंचाई पर भूजल स्तर में आई गिरावट के प्रभावों की जांच की। उनके विश्लेषण से अध्ययन क्षेत्र में अवतलन की दो अलग-अलग दरों का पता चला जैसा कि दिल्ली के आईजीआई हवाई अड्डे के पास एक शहरी गांव कापसहेड़ा में अवतलन की दर 11 सेमी/वर्ष से अधिक, और अध्ययन अवधि के दौरान फरीदाबाद में अवतलन की दर 3 सेमी/वर्ष से अधिक दर्ज की गई। अध्ययन के अनुसार, इन दोनों क्षेत्रों में भूस्खलन तेजी से बढ़ रहा है जो घटते भूजल की प्रवृत्ति का अनुसरण कर रहा है। तीसरा क्षेत्र, द्वारका, पिछले कुछ वर्षों के दौरान अवतलन में सुधार की ओर बदलाव दर्शाता है, जिसका श्रेय भूजल के उपयोग को विनियमित करने और वर्षा जल संचयन को प्रोत्साहित करने की कठोर सरकारी नीतियों को दिया जा सकता है। इसके अलावा, जोखिम आशंका और भेद्यता की दृष्टि से वर्गीकृत जोखिम मानचित्र का उपयोग करते हुए किए गए विश्लेषण से ज्ञात हुआ कि अनुमानित रूप से 100 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र जमीनी गतिविधि के उच्चतम जोखिम स्तर के अधीन है, जिस पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है।

ग्रामीण क्षेत्रों में भूजल निष्कर्षण के प्रभाव को समझने का एकमात्र अध्ययन पंजाब और हरियाणा में हुआ है। ओ.पी. जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी द्वारा करवाए गए इस अध्ययन का शीर्षक, ‘‘ग्राउंडवाटर मैनेजमेंट इन इंडियाज पंजाब एंड हरियाणाः ए केस ऑफ टू लिटल एंड टू लेट?’’ है जो 2021 में प्रकाशित हुआ था। अध्ययन के अनुसार, शोधकर्ताओं को पूरे पंजाब और हरियाणा में लगातार कई गांवों में दरारों वाले घर मिले थे।

असम में हाइड्रोकार्बन निष्कर्षण से संभावित अवतलन का अध्ययन: विश्व भर के विभिन्न तेल क्षेत्रों में हाइड्रोकार्बन निष्कर्षण के कारण होने वाले भू-अवतलन की सूचना मिलने के पश्चात, असम में हाइड्रोकार्बन निष्कर्षण के कारण संभावित भू-अवतलन की निगरानी के लिए नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर (एनआरएससी), हैदराबाद द्वारा 2018 में ‘‘मॉनिटरिंग ऑफ लैंड सब्सिडेंस ड्यू टू हाइड्रोकार्बन एक्सट्रैक्शन इन असम’’ नामक एक परियोजना शुरू की गई थी। इसके बाद, भू-अवतलन परियोजना के निष्पादन हेतु एनआरएससी और ऑयल इंडिया लिमिटेड (ओआईएल) के बीच 21 मई, 2018 को एक परियोजना विशिष्ट समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए गए।

इस परियोजना के उद्देश्य इस प्रकार से थे—अध्ययन क्षेत्र में dInSAR-आधरित भू-अवतलन का पता लगाना; क्षेत्र में धंसाव वाले क्षेत्रों की पहचान और उन्हें सत्यापित करना; और सतह एवं उपसतह के भूवैज्ञानिक और हाइड्रोकार्बन निष्कर्षण डेटा (उपलब्धता होने पर) का उपयोग करके चिह्नित और चित्रित भूमि उप-क्षेत्रों की विशेषता ज्ञात करना। इस अध्ययन क्षेत्र में असम और अरुणाचल प्रदेश में ओआईएल के परिचालन क्षेत्र शामिल हैं, जो ऊपरी असम शेल्फ (रेत या चट्टानों का किनारा) का एक हिस्सा है, जो असम-अराकान बेसिन के उच्च-अंतरीप (फोरलैंड) हिस्से में एक दक्षिणपूर्व आप्लावित शेल्फ है।

डिफरेंशियल इंटरफेरोमेट्रिक (अवकल व्यक्तिकरणमितिक) तकनीक का उपयोग कर असम और अरुणाचल प्रदेश में ओआईएल के परिचालन क्षेत्रों में भू-अवतलन क्षेत्रों की पहचान करने का प्रयास किया गया। 2004 से 2018 की अवधि में सूक्ष्म तरंगीय डेटा से प्राप्त कुल 17 प्रमुख स्लेव युग्म संसाधित किए गए।

असम के चाबुआ, दुलियाजान, तिनसुकिया तथा डिगबोई, अरुणाचल प्रदेश के दियुन शहरों में, एवं उनके आसपास विशिष्ट परंतु अनियमित रूप से क्रमिक गौण पैटर्न देखे गए। अध्ययन क्षेत्र के सत्यापन से संबद्ध क्षेत्र में भू-अवतलन के किसी भी संभावित संकेत का पता नहीं चला। उपर्युक्त उपग्रह-आधारित वैज्ञानिक अध्ययन और उसके बाद क्षेत्र सत्यापन से, यह निष्कर्ष निकाला गया है कि ऑयल इंडिया लिमिटेड के असम और अरुणाचल प्रदेश के तेल और गैस क्षेत्रों के अध्ययन क्षेत्रों में हाइड्रोकार्बन निष्कर्षण के कारण भूमि के धंसने का कोई संकेत नहीं मिला है।

रोकथाम हेतु सुझाव

ढलान स्थिरीकरण: भूस्खलन और क्षरण को रोकने के लिए सीढ़ीदार या रिटेनिंग दीवारें खड़ी करने जैसे तरीकों का उपयोग करके भू-ढलान को स्थिर किया जा सकता है।

वनस्पति रोपण: भूमि की ढलानों पर वनस्पति रोपण से मृदा स्थिरीकरण और क्षरण की रोकथाम में सहायता मिल सकती है। भू-ढलान स्थिरीकरण पेड़ों और अन्य गहरी जड़ों वाले पौधों के लिए विशेष रूप से प्रभावी है।

जल निकासी पर नियंत्रण: पहाड़ी क्षेत्रों में, जल निकासी प्रणालियों को प्रभावी ढंग से प्रबंधित और अनुरक्षित करना महत्वपूर्ण है जैसा कि जल निकासी के कुप्रबंधन के कारण भूमि धंस सकती है। ढलानों से जल को दूर रखने और क्षरण को रोकने के लिए पुलिया या अन्य जल निकासी प्रणालियां स्थापित करना आवश्यक हो सकता है।

मजबूत नींव: पहाड़ी क्षेत्रों में इमारतों को धंसने या ढहने से रोकने के लिए उनकी नींव को मजबूत किया जाना चाहिए।

योजना और जोन निर्माण: सावधानीपूर्वक योजना और जोन (भू-क्षेत्र) निर्माण के साथ, इमारतों को उन स्थानों से दूर रखा जा सकता है जो भूस्खलन या क्षरण के प्रति संवेदनशील हैं। ऐसा करने के लिए, कुछ क्षेत्रों को निर्माण रहित क्षेत्र घोषित करने की आवश्यकता हो सकती है या उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में विशेष निर्माण विधियों का उपयोग किया जाना चाहिए।

अन्य उपाय: भूजल की अत्यधिक पंपिंग के समाधान हेतु वर्षा जल का संचयन, व्यवस्थित जलभृत पुनर्भरण, तालाबों का पुनरुद्धार, अवैध भूजल पंपिंग पर अंकुश लगाना और देशी वनस्पतियों का रोपण करना होगा, जो भूजल संरक्षण में मदद कर सकते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में छोटे बांध जल संसाधनों को बढ़ाने में मदद कर सकते हैं।

सीमाएं

हालांकि, उपर्युक्त उपायों की भी सीमाएं हैं। उदाहरणार्थ, भूजल का पुनर्भरण एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। यदि भूजल का पुनर्भरण निष्कर्षित की गई मात्रा के बराबर हो या जल का उपयोग सतत रूप से हो, तो भू-अवतलन को कम किया जा सकता है। लेकिन यदि जलभृत ने अपनी भंडारण क्षमता खो दी है, तो पुनर्भरण की प्रक्रिया अपरिवर्तनीय हो सकती है। एक बार जब सतह का निचला भाग जल धारण करने की अपनी क्षमता खो देता है और भू-अवतलन हो जाता है, तो जलभृतों का पुनर्भरण संभव नहीं है।

हालांकि, विभिन्न शोधों से पता चलता है कि भारत में भूजल का जितना निष्कर्षण किया जाता है, उसके पुनर्भरण की दर उससे कहीं अधिक है।

भू-अवतलन को कम करने हेतु उठाए गए कदम

दिसंबर 2018 में केंद्रीय भूजल प्राधिकरण ने घरेलू एवं औद्योगिक प्रयोजनों के लिए भूजल निष्कर्षण हेतु ‘‘जल संरक्षण शुल्क’’ प्रस्तावित किया। इस शुल्क की दर में निष्कर्षण की मात्रा और शोषित क्षेत्र (अत्यधिक दोहन, संवेदनशील तथा अर्ध-संवेदनशील ब्लॉक के लिए उच्चतम) के आधार पर अंतर है। हालांकि, इस प्रस्ताव में व्यक्तिगत घरों तथा कृषि उपयोगकर्ताओं (भूजल के सबसे बड़े उपयोगकर्ता) को छूट दी गई थी।

इसके अलावा, सरकार द्वारा 2020 में भूजल के निष्कर्षण को विनियमित एवं नियंत्रित करने हेतु दिशानिर्देश अधिसूचित किए गए, जिन्हें 2023 में संशोधित किया गया है।

निष्कर्ष

विशेषज्ञों के अनुसार, भू-अवतलन की प्रक्रिया को भूजल पुनर्भरण द्वारा रोका नहीं जा सकता। इसलिए, एकमात्र समाधान भूजल के अत्यधिक निष्कर्षण को रोकना है। भारत में, कई गांवों ने पहले ही जल बजट अपना लिया है, जहां लोग उपलब्ध और उपयोग किए गए जल की मात्रा की गणना करते हैं। शहरों को भी इसी तरह का बजट लागू करना चाहिए। सरकार और नीति निर्माताओं को अवतलन से प्रभावित क्षेत्रों की भू-भैतिकी से संबद्ध विशेषताओं की व्यापक समझ होनी चाहिए और अवैध भूजल निष्कर्षण को रोकने हेतु और अधिक कठोर कानून बनाए जाने चाहिए। जैसा कि अप्रैल 2023 में जारी पहली जल निकाय गणना के अनुसार, भारत में हर चार शहरी जल निकायों में से लगभग एक जल निकाय की स्थिति खराब है। इस स्थिति में सुधार करना अत्यावश्यक है।

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